भूकंप नहीं, हमारा घर मारता है हमको

सोमवार, 27 अप्रैल 2015





भूकंप नहीं, हमारा घर मारता है हमको
-जयसिंह रावत

भूचाल कभी किसी को नहीं मारता है, फिर भी हम डरते भूचाल से हैं और मरते उस मकान से हैं जिसे हम अपने आश्रय के लिये या सुरक्षित रहने के लिये बनाते हैं। हैरानी का विषय यह है कि जो मकान हमें मारता है या चोट पहुंचाता है उसके लिये हम विलाप करते हैं और सारा दोष भूकंप पर डाल देते हैं। अगर हम प्रकृति के साथ जीना सीखें तो क्या भूचाल या क्या बाढ़ ? हमें कोई भी आपदा कैसे मार सकती है?
30 सितंबर 1993 को महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में 6.2 परिमाण का भूकंप आता है तो उसमें लगभग 10 हजार लोग मारे जाते हैं और 30 हजार से अधिक लोगों के घायल होने के साथ ही 1.4 लाख लोग बेघर हो जाते हैं। जबकि 28 मार्च 1999 को चमोली में लातूर से भी बडे परिमाण 6.8 मैग्नीट्यूट का भूकंप आता है तो उसमें केवल 103 लोगों की जानें जाती हैं और 50 हजार मकान क्षति ग्रस्त होते हैं। 20 अक्टूबर 1991 के उत्तरकाशी भूकंप में 786 लोग मारे जाते हैं और 42 हजार मकान क्षतिग्रस्त होते हैं जबकि वह चमोली के भूकंप से छोटा केवल 6.1 परिमाण का ही भूकंप था। इसी तरह जब 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज में रिक्टर पैमान पर 7.7 परिमाण का भूकंप आता है तो उसमें कम से कम 20 हजार लोग मारे जाते हैं और 1.67 लाख लोग घायल होने के साथ ही 4 लाख लोग बेघर हो जाते हैं। जबकि 11 मार्च 2011 को जापान के टोहाकू क्षेत्र में रिक्टर पैमाने पर 9.00 अंक परिमाण का प्रलंकारी भूचाल आने के साथ ही विनाशकारी सुनामी भी आबादी क्षेत्र को ताबाह कर जाती है, फिर भी वहां केवल 15,891 लोग मारे जाते हैं। इस दुहरी विनाशलीला के साथ तीसरा संकट परमाणु संयंत्रों के क्षतिग्रस्त होने से विकीर्ण का भी था। अगर ऐसा तिहरा संकट भारत जैसे देश में आता तो करोड़ों लोग जान गंवा बैठते। नेपाल में ही देखिये! वहां सबसे अधिक तबाही काठमांडू में हुयी है। क्योंकि देश की राजधानी होने के नाते वहा आबादी सबसे घनी होने के साथ ही इमारतें भी औसतन अन्य हिस्सें की तुलना में ज्यादा और विशलकाय हैं। धरहरा टावर इसका एक उदाहरण है।
अगर आप जापान में भूकंपों का इतिहास टटोलें तो वहां बड़े से बड़े भूचाल भी मानवीय हौसले का डिगा नहीं पाये। जापान में 26 नवम्बर सन् 684 ( जूलियन कैलेंडर ) से लेकर अब तक रिक्टर पैमाने पर 7 अंक से लेकर 9 परिमाण तक के दर्जनों भूचाल चुके हैं। आपदा प्रबंधकों के अनुसार इस परिमाण के भूकंप काफी संहारक होते हैं। खास कर रिक्टर पैमाने पर 8 या उससे बड़े परिमाण के भूकंपों को भयंकर माना जाता है। 9 और उससे अधिक के भूचालों को तो प्रलयंकारी माना ही जाता है। फिर भी जपान में जन हानि बहुत कम होती है।  सन् 1950 के बाद के जापान के भूकंपों पर ही अगर नजर डाली जाय तो सन् 1952 से लेकर अब तक जापान में रिक्टर पैमाने पर 7 से लेकर 9 परिमाण तक के 31 बड़े भूचाल चुके हैं। उनके अलावा 4 या उससे कम परिमाण के भूकंप तो वहां लोगों की दिनचर्या के अंग बन चुके हैं। इन भूकंपों में से टोहोकू के भूकंप और सुनामी के अलावा वहां कोई बड़ी मानवीय त्रासदी नहीं हुयी। वहां 25 दिसंबर 2003 को होक्कैडो में 8.3 परिमाण का भयंकर भूचाल आया फिर भी उसमें मरने वालों की संख्या केवल एक थी। इतने बड़े परिमाणों वाले 7 भूकंप ऐसे थे जिनमें एक भी जान नहीं गयी। जाहिर है कि जापान के लोग भूकंप ही नहीं बल्कि प्रकृति के कोपों के साथ जीना सीख गये हैं। वहां के लोगों ने प्रकृति को अपने हिसाब से ढालने का दुस्साहस करने के बजाय स्वयं को प्रकृति के अनुसार ढाल दिया है।
भूकंप की संवेदनशीलता के अनुसार भारत को 5 जानों में बांटा गया है। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील जोनपांचमाना जाता है जिसमें सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र का सम्पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र है। वैसे देखा जाय तो अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक का संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारतीय उप महाद्वीप के उत्तर में यूरेशियन प्लेट के टकराने से भूगर्वीय हलचलों के कारण संवेदनशील है। इनके अलावा रन आफ कछ भी इसी जोन में शामिल है। लेकिन इतिहास बताता है कि भूचालों से जितना नुकासान कम संवेदनशीलजोन चारमें होता है, उतना जोन पांच में नहीं होता। उसका कारण भी स्पष्ट ही है। जोन पांच वाले हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है। जबकि जोन चार और उससे कम संवेदनशील क्षेत्रों का जनसंख्या का घनत्व काफी अधिक है। यही नहीं हिमालयी क्षेत्र में प्रायः लोगों के घर हजारों सालों के अनुभवों के आधार पर परंपरागत स्थापत्य कला के अनुसार बने होते थे। इस हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या भी काफी विरल होती है। इसलिये यहां जनहानि भी काफी कम होती है। त्रिपुरा को छोड़ कर ज्यादातर हिमालयी राज्यों का जनसंख्या घनत्व 125 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से भी कम है। अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम का जनसंख्या घनत्व तो 50 से भी कम है। उत्तराखंड में ही जहां उच्च हिमालय स्थित सीमांत जिला चमोली का जनसंख्या घनत्व 49 और उत्तरकाशी का 41 है, वही मैदानी हरिद्वार का 817 और उधमसिंहनगर का 648 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। अगर कभी काठमांडो की जैसी भूकंप आपदा आती है तो भूकंपीय दृष्टि से अति संवेदनशील सीमांत जिलों से अधिक नुकसान मैदानी जिलों में हो सकता है।
हमारे देश के किसी भी हिस्से में जब भी भूकंप या बाढ़ जैसी दैवी आपदा आती है तो सरकारी आपदा प्रबंधन की तैयारियां धरी की धरी रह जाती हैं और बाद में एक महकमा दूसरे पर सारा देाष मढ़ कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। उदाहरण उत्तराखंड की 2013 की जल प्रलय का लिया जा सकता है। हजारों लोगों के मारे जाने के बाद मौसम विभाग का कहना था कि हमने तो राज्य सरकार को भारी वर्षा की चेतावनी दे कर पहले ही आगाह कर दिया था। इस पर राज्य सरकार और उसके आपदा प्रबंधन तेत्र का कहना था कि मौसम विभाग ने अलग से कोई खास चेतावनी देने के बजाय रूटीन वाली चेतावनी दे दी थी जैसी  कि लगाभग हर रोज ही बरसात में दी जाती है। अगर मौसम विभाग ने मानसून के समय से पहले आने, मानसून की गति और उसकी नमी के लोड (भार) की भी सही जानकारी दी होती तो यह नौबत नहीं आती। वास्तव में किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि केदारनाथ के ऊपर मानसून गोली की माफिक इतना अधिक नमी का भार लेकी चलेगा और वहा बाढ़ जायेगी। उस उच्च हिमालयी क्षेत्र में तो वर्षा भी नहीं होती।
देखा जाय तो हमने अभी कोसी की बाढ़, सन् 2004 की सुनामी और लातूर तथा भुज की भूकंपीय आपदा से सबक नहीं सीखा। हमारे देश में भूकंपीय संवेदनशीलता के लिये जोनेशन तो कर दिया गया मगर घातकता का नक्शा अभी तक नहीं बना। देखा जाय तो जोन पांच से अधिक जोन चार वाले क्षेत्र भूंकपीय घातकता की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील है। कारण इन क्षेत्रों का जनसंख्या घनत्व अधिक होना तथा इन क्षेत्रों में विशालकाय अट्टालिकाओं का होना है। आम आदमी तो सुरक्षा मानकों की उपेक्षा करता ही है, लेकिन सरकार की ओर से भी इस संबंध में ज्यादा जागरूकता नहीं दिखाई जाती। ज्यादातर राज्यों में स्कूल-कालजों और अस्पतालों का निर्माण भूकंपीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुये नहीं किया जाता है। ज्यादातर सरकारी बिल्डिंगों के निर्माण में भी भूकंपरोधी मानको की उपेक्षा कर दी जाती है। पुराने सरकारी भवन तो मामूली झटके से भरभरा सकते हैं। उत्तराखंड में जब देश का पहला आपदा प्रबंधन मंत्रालय बना था तो यहां भवनों के नक्शे पास कराने में भूकंपरोधी मानकों को भी शामिल करने के साथ ही कानून बनाने की घोषणा भी की गयी थी। लेकिन ऐसा प्रावधान कभी नहीं किया गया। सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र के बीच के सभी राज्य में अब परंपरागत मवन निर्माण शिल्प के बजाय मैदानी इलाकों की नकल से सीमेंट कंकरीट के  मकान बन रहे हैं, जो कि भूकंपीय दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं। हिमालयी गावों में सीमेंट कंकरीट के जंगल उग गये है।
उत्तराखण्ड का भूभाग भौगोलिक दृष्टि से सीधे यूरेशियन प्लेट या तिब्बत के मजबूत पठार से लगा हुआ है। अगर भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर की ओर खिकने से हिमालय के गर्व में घर्षण या टक्कर से भूगर्वीय ऊर्जा जमा हो रही है तो इससे उत्तराखंड समेत 11 हिमालयी राज्यों के लिये खतरा निरंतर बना हुआ है। उत्तराखंड में भी मसूरी, नैनीताल और देहरादून जैसे नगरों पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है। ये सभी नगर जोन चार में आते हैं। राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि अगर मसूरी और नैनीताल में सेकड़ों मकान सन् 1900 से पहले के बने हुये हैं। अगर यहां लगभग 6 परिमाण या उससे थोउ़ा सा बड़ा भूकम्प आता है तो वहां कम से कम  18 प्रतिशत पुराने जीर्णसीर्ण भवन जमींदोज हो सकते हैं। नैनीताल के 13 आवासीय वार्डों के 3110 भवनों पर किये गये ताजा सर्वेक्षण के अनुसार वहां बड़े भूकम्प की स्थिति में 396 भवन अति जोखिम वाली श्रेणी 5 और 4 में पाये गये हैं। इनमें से 92 प्रतिशत भवन 1950 से पहले के बने हुये हैं। अगर ये भवन ढह गये तो तो सरोवर नगरी मलवे में बदल जायेगी। देहरादून में भी खुड़बुड़ा और चक्खूवाला जैसे ऐसे क्षेत्र हैं जहां जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अगर कभी काठमांडू की जैसी नौबत आती है तो कई दिनों तक रेस्क्यू वर्कर अंदर के क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पायेंगे। उत्तरकाशी, चमोली पिथौरागढ़ की तरह सूबे की राजधानी भी भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील है। इसकी वजह है दून से गुजरने वाले दो बड़े सक्रिय फॉल्ट। ये हैं मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) और मेन फ्रंटल थ्रस्ट (एमएफटी) भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक दोनों सक्रिय थ्रस्ट राजपुर रोड के आसपास एक-दूसरे से करीब 10-12 किमी की दूरी से गुजरते हैं।
संलग्नः- मसूरी की 100 साल से पुरानी इमारतों का चित्र

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-जयसिंह रावत
पत्रकार
- 11 फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
jaysinghrawat@gmail.com


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