बूढ़े माता-पिता को मुंबई की ट्रेन में बैठा दीजिये
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
आज फिर एक बार सामना हो गया एक और बूढ़ी महिला से जो कि लावारिस भिखारिन जैसे हालात में खाली लोकल ट्रेन में लाश की तरह से मुझे पड़ी मिली। पानी पिलाने और फिर वड़ा-पाव खिलाने के बाद जब वह आधे घंटे में अपने पोपले बिना दांतो वाले मुंह से टूटी-फूटी बात करने लगी तो उसने रामनगर जाने की इच्छा मेरे सामने रख दी। मैं क्या कर सकता था ऐसा लगा कि किसी ने मेरे दिल पर पैर रख कर मसल डाला हो। कोई संस्था ऐसे लोगों के लिये इच्छुक नहीं रहती। मुंबई में ऐसे सैकड़ों बुजुर्ग हैं जो बस दौड़ती लोकल ट्रेनों में भिखारियों की तरह से महानगर के एक कोने से दूसरे कोने में घिसटते हुए एक दिन लावारिस मौत मर जाते हैं। मुझे हजारों बार इस बात का अनुभव हुआ कि किस तरह क्रूर और कमीने बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को हजारों किलोमीटर दूर जाने वाली मुंबई की गाड़ी में बैठा कर अपनी जिंदगी जीने के लिये इन माता-पिता से छुटकारा पा लेते हैं जो कि कभी तकलीफ़ उठा कर उन एहसानफ़रामोश औलादों के लिये भूखे रहे होंगे।
नाम सब्बन बताने वाली यह माई ने जब अपनी पुरबिया बोली में खुश होते हुए बताया कि बेटा-बहू रामनगर डुमरा में हैं, पति के बारे में पूछने पर उदास होकर बताया, "बच्चा हमरे मालिक तो भुंई में चले गएन"। खुद को तुर्किया मुस्लिम बताती है लेकिन पोपले से मुंह से मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहती है कि मैं किसी के भी घर का खाना खा लेती हूं।
मैं उसे खाना और बोतल में पानी दे कर चला तो आया लेकिन दिमाग में हजारों सवाल और आत्मा पर बोझ है कि ये समाज को क्या हो रहा है? बच्चे अपनी जिंदगी में मां-बाप को इतनी बड़ी अड़चन समझते हैं कि हजारों किलोमीटर दूर इस तरह बेहाल सी गुमनामी भरी दुखद मौत के लिए बेरहमी से छोड़ देते हैं। लाशें इधर उधर पड़ी रहती हैं फिर महानगर पालिका इन्हें फूंक कर अपनी जिम्मेदारी निभा देती है। मेरे भीतर के सवाल जल कर खत्म नहीं हो रहे हैं, दिमाग में एक ओर वह मां है जिसका दिमागी संतुलन बुढ़ापे के कारण हल्का सा डगमगा गया है, याददाश्त क्षीण हो गयी है पर बच्चों को अभी भी प्यार करती है उनके पास जाना चाहती है और बच्चे हैं कि मां-बाप से पीछा छुड़ाने का ऐसा क्रूर तरीका अपना रहे हैं।
नाम सब्बन बताने वाली यह माई ने जब अपनी पुरबिया बोली में खुश होते हुए बताया कि बेटा-बहू रामनगर डुमरा में हैं, पति के बारे में पूछने पर उदास होकर बताया, "बच्चा हमरे मालिक तो भुंई में चले गएन"। खुद को तुर्किया मुस्लिम बताती है लेकिन पोपले से मुंह से मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहती है कि मैं किसी के भी घर का खाना खा लेती हूं।
मैं उसे खाना और बोतल में पानी दे कर चला तो आया लेकिन दिमाग में हजारों सवाल और आत्मा पर बोझ है कि ये समाज को क्या हो रहा है? बच्चे अपनी जिंदगी में मां-बाप को इतनी बड़ी अड़चन समझते हैं कि हजारों किलोमीटर दूर इस तरह बेहाल सी गुमनामी भरी दुखद मौत के लिए बेरहमी से छोड़ देते हैं। लाशें इधर उधर पड़ी रहती हैं फिर महानगर पालिका इन्हें फूंक कर अपनी जिम्मेदारी निभा देती है। मेरे भीतर के सवाल जल कर खत्म नहीं हो रहे हैं, दिमाग में एक ओर वह मां है जिसका दिमागी संतुलन बुढ़ापे के कारण हल्का सा डगमगा गया है, याददाश्त क्षीण हो गयी है पर बच्चों को अभी भी प्यार करती है उनके पास जाना चाहती है और बच्चे हैं कि मां-बाप से पीछा छुड़ाने का ऐसा क्रूर तरीका अपना रहे हैं।
5 टिप्पणियाँ:
dr. saahab kabhee kabhee to lagtaa hee nahin ki ye wahee desh hai jise paramparaon aur sanskaaron kaa dhanee desh kahte the, sab samvedanheen ho chuke hain, aap aur ham sabhee. soch mein padaa hoon.
अगर ये सची बाते हम मीडिया द्वारा किसी प्राइम टाइम पर टी वी पर दिखाए तो शायद इस देश मे जन्शंख्या पर अंकुश लग जायगा क्योकि जिन बच्चो ने अपने माँ बाप के साथ इस प्रकार का अमानवीय , क्रूरता पुर्ण, असभ्य , व्यव्हार किया होगा ,वो अपने आने वाले कल को इस परकार का न होने देने के लिए किसी बच्चे को जनम ही नही देगे
मैंने ऐसे न जाने कितने बुजुर्गों को इस तरह बेहाल सा इस शहर में देखा है जो बन पड़ता है कर देते हैं हम लोग बाकी तो आपने पढ़ा न कि बेचारॊं की क्या हालत होती है।
जय जय भड़ास
अमित भाई आपने कहा कि मीडिया ऐसी बात को दिखाए तो ये नहीं होगा क्योंकि उसके बीच में तेल साबुन के एडवर्टाइज कम ही मिल पाएंगे। मैंने ऐसे सैकड़ॊ बुजुर्गों को मुंबई की लोकल ट्रेनों में भटकते रोज ही देखा है अपने मांगे हुए भीख के पैसे में से इन्हें भी खाना खिला देते हैं बस और कुछ नहीं कर पाते हम लोग....
जय जय भड़ास
गुरुदेव,
हकीकत जिसका आइना देखने से सभी डरते हैं, हमारे सामजिक सरोकार और कर्तव्य की मुहीम में हमारे देश की माता भी तो हैं, याद करिए भाई शशिकान्त अवस्थी के साथ हमने कन्धा से कन्धा मिला कर माँ के लिए मुहीम चलाया था.
भड़ास कि जमीनी सार्थकता का उद्देश्य भी तो ये ही है.
जय जय भड़ास
एक टिप्पणी भेजें