हरकीरत "हक़ीर" कब से "हीर" बन गयी हैं हमें पता ही न चला
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
देखिये मात्र कुछ महीनों पहले ये "हक़ीर" हुआ करती थीं
चमत्कार हो गया हरकीरत "हक़ीर" कब से "हीर" बन गयी हैं हमें पता ही न चला कि कल तक जो हक़ीर हुआ करती थीं आज वे किसी रांझे की हीर बन चुकी हैं। ये ब्लागिंग भी कमाल की चीज है मुझ ज़ैनब को लैला बना दे क्या भरोसा या बड़े भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव को रोमियो बना दे क्या ऐसी भी तासीर है इसमें?? इतने दिनों से कुछ लिख न पायी थी आज मन करा कि पुराना कबाड़ टटोलूं क्योंकि मुंबई की हालिया ब्लागर मीट में मैं भी न जा सकी थी, शहर से बाहर थी। हरकीरत जी को मुबारक हो ये रूमानी बदलाव लेकिन पता नहीं क्यों बड़े भाई डा.साहब पर दया आ रही है कि जब इन जैसी दर्द दर्द चिल्लाने वाली किसी की हीर बन सकती है तो आप इतने समय से लोगों के दुःख दर्द बांट रहे हो, इसी रास्ते चुपके से मजनूं, रोमियो जैसे कुछ क्यों न बन पाए?जय जय भड़ास
4 टिप्पणियाँ:
कल तक जो थीं "हक़ीर" आज "हीर" बन गई.
बासी कढ़ी ब्लागिंग की कड़ाही में खीर बन गई.
अब कौन कहेगा कि ये कविता मैंने हरकीरत हकीर की लिखी हुई चुराई है :)
ये मेरी पूरी तरह से मौलिक कविता है लेकिन इसे मैं उर्दू में तर्जुमा नहीं करूंगी ये हिंदी में ही अच्छी लग रही है।
जय जय भड़ास
अरे दइया.... इस १९५० की हीर का रांझा कौन है अगर किसी को पता हो तो जल्दी से बताओ ताकि उस रांझे के भी दर्शन कर सकें :)
जय जय भड़ास
फरहीन बिटिया
रांझा तो कोई भी हो सकता है
अब उम्र का नहीं चलता कहीं जोर है
शोर मचा हुआ अब ये चारों ओर है।
ये वही दर्द की दुकान की सेल्सगर्ल है न जिसने मुनव्वर आपा पर चोरी का आरोप लगाया था? अब हीर बन गयी है तो देखियेगा कुछ ठरकी हिंदी ब्लागर रांझा,मजनू और रोमियो बने मिल ही जाएंगे ऐसे लोगों की हिंदी ब्लागरों में कमी नहीं है खास तौर पर जिनके मुंह में दांत नहीं पेट में आंत नहीं....
जय जय भड़ास
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