मुखौटाधारियों की सूची लंबी होती जा रही है रणधीर सिंह सुमन,गुफ़रान सिद्दकी,सलीम खान,प्रदीप तिवारी........

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

 

पत्राकारिता(ब्लागिंग को हमारे आदरणीय डा.रूपेश जी ने यही शब्द दिया है) के कारण जब एक समानान्तर मीडिया अस्तित्त्व में आया तो मुखौटाधारियों ने इस मंच को सबसे पहले झपट लिया। एक से एक भेड़िये अपने प्रोफ़ाइल में अपने आप को ऊन से लदी भेड़ बताने लगे। जब इसी मंच पर खाल उधेड़ने का काम भड़ास पर करा जाने लगा तो इनके असल चेहरे सामने आने लगे। कोई है तो साम्प्रदायिकता का जहर उगल रहा है कोई है तो नेतागिरी झाड़ने के लिये एसोसिएशन गांठ रहा है, अपनी अपनी विचारधारा का अचार जबरन स्वादिष्ट बता कर चटाने की कोशिश में लगे हैं। जब विचारधारा के बारे में विमर्श की स्थिति आती है तो दुम को जांघों के बीच के रिक्त स्थान में दबा कर चुपचाप सरक लेते हैं। हिंदी पत्राकारिता में साम्प्रदायिक और कुत्सित राजनैतिक परम्पराओं को पोषण करने वाली दाईयां भी आ गयी हैं और बखूबी अपने अपने लल्ला की मालिश कर रही हैं। इन धूर्तों को इनकी सही जगह बता कर यदि सामान्य जन संगठित होकर भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ़ अभियान चलाएं तब तो इस माध्यम का सदुपयोग हो पाएगा लेकिन इस माध्यम पर भी इन चील कौव्वों ने कब्जा सा जमा रखा है। हर जिले के कलेक्टर से लेकर कमिश्नर तक के ई-मेल है, राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक का ई-मेल है तो मुद्दों की जलेबी बना कर आपस में बांटने से अच्छा रहे कि सीधे इन जनता के सेवकों से उत्तर मांगा जाए। इस तरह के मुद्दों पर जब राजनैतिक और साम्प्रदायिक विचारों के पुष्पगुच्छ लेकर खड़े लोगों से चर्चा करी जाए तो कोई कहेगा कि कम्युनिस्ट बन जाओ सारी समस्या खत्म हो जाएगी तो दूसरा कहेगा कि मुसलमान बन जाओ सब समस्या खत्म और तीसरा कहेगा कि देश में सारी समस्याएं मुसलमानों के कारण ही हैं। ये बौद्धिक आतंकवादी हैं जो इस माध्यम पर आकर सामान्यजन में मूल समस्याओं के प्रति भटकाव पैदा करने का सोचा समझा काम कर रहे हैं।

मैं इस मंच पर एक बार फिर से बुलंद कर रहा हूं उस आवाज़ को जिसे जस्टिस आनंद सिंह ने उठाया है। ये जागरूक भेड़िये इस बात पर मुंह में ताला मार कर अपनी गुफाओं में कुछ समय के लिये घुस जाएंगे। यदि इन्हें पत्थर मार कर पूछा जाए तो कहेंगे कि ये आनंद सिंह को जानते ही नहीं हैं। क्यों जानेंगे? जान लेने से जुलाब जो होने लगेगा। सबको खुला निमंत्रण है इस विमर्श में आने का कि क्या बात है जस्टिस आनंद सिंह का नाम लेते ही बहुत से लोगों को सांप सूंघ जाता है।

जय जय भड़ास

संजय कटारनवरे

मुंबई

6 टिप्पणियाँ:

Sunil Kumar ने कहा…

अच्छे विषय पर आपने ध्यान दिलाया है

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ ने कहा…

सुनील कुमार जी सच बताइये कि क्या आप जस्टिस आनंद सिंह जी के बारे में जानते हैं और यदि जानते है तो फिर आइये जब दिग्गज लोग मैदान छोड़ कर भाग गये हैं या जो भी वजह हो उनके न दिखने की हम लोग ही इस विषय पर दोबारा चर्चा करें। बता दूं कि जस्टिस आनंद सिंह वो हैं जो कि कानून की पुनर्समीक्षा के लिये बरसों से कष्ट उठा रहे हैं इंडिया न्यूज नामक पत्रिका की एक साहसी महिला पत्रकार ने हिम्मत दिखा कर उन पर एक कहानी करी है बाकी धुरंधर पत्रकार तो उनका नाम सुनते ही पेशाब छोड़ देते हैं स्टार न्यूज के पास भी उनका साक्षात्कार है लेकिन साहस नहीं है दिखाने का....
जय जय भड़ास

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

क्या हो गया भाई दोबारा सन्नाटा छा गया संजय कटारनवरे के आ जाने से? ये क्या बात है ये आकर पुछल्ला छोड़ कर भाग जाते हैं। चलो किसी को तो जस्टिस आनंद सिंह याद हैं भले वो कटारनवरे ही क्यों न हो
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

भाई कटारनवे की कटार ने सबकी फाड़ के सिल दिया, धांसू है गुरु पेले रहिये.
जय जय भड़ास

Unknown ने कहा…

प्रिय तो आप समाज में किसी के हो नहीं सकते इसलिए बिना अभिवादन के,

आप कौन हैं, क्या हैं, क्या बेचते हैं, किसका खाते हैं, मैं कुछ भी नहीं जानता। आज गूगन सर्च पर कुछ देख रहा था तो अपना नाम देख इस ब्लॉग पर आ गया वरना शायद इसे खोलता भी नहीं। आपका ब्लॉग देखकर यह तो जान गया कि आप शहरी नहीं वरन् जंगली जानवरों से भी बदतर हैं, क्योंकि इस प्रकार की भाषा का प्रयोग न तो बेचारे जानवर करते हैं और न ही जंगल के पेड़-पौधे। आप और आपके सहोदरों, बिरादरों और संगियों को सभ्य भाषा तक नहीं आती है, तो उसका दोष मेरा नहीं, केवल आपके पूर्वजों का और उस समाज का है जिसमें आप पले और बढ़े।

मैं ईश्वर को नहीं मानता क्योंकि मैं एक नास्तिक हिन्दू परिवार में पैदा हुआ। आपका ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे, इसे कामना सहित, मैं केवल इतना कहता हूं कि मैं डंके की चोट पर कम्युनिस्ट हूं, एक बुद्धिजीवी हूं और एक लेखक हूं। जिसको इससे तड़पना है, तड़पे, गरजे और गालियां बके। यह मेरा सरोकार नहीं।

- प्रदीप तिवारी

Unknown ने कहा…

प्रिय तो आप समाज में किसी के हो नहीं सकते इसलिए बिना अभिवादन के,

आप कौन हैं, क्या हैं, क्या बेचते हैं, किसका खाते हैं, मैं कुछ भी नहीं जानता। आज गूगन सर्च पर कुछ देख रहा था तो अपना नाम देख इस ब्लॉग पर आ गया वरना शायद इसे खोलता भी नहीं। आपका ब्लॉग देखकर यह तो जान गया कि आप शहरी नहीं वरन् जंगली जानवरों से भी बदतर हैं, क्योंकि इस प्रकार की भाषा का प्रयोग न तो बेचारे जानवर करते हैं और न ही जंगल के पेड़-पौधे। आप और आपके सहोदरों, बिरादरों और संगियों को सभ्य भाषा तक नहीं आती है, तो उसका दोष मेरा नहीं, केवल आपके पूर्वजों का और उस समाज का है जिसमें आप पले और बढ़े।

मैं ईश्वर को नहीं मानता क्योंकि मैं एक नास्तिक हिन्दू परिवार में पैदा हुआ। आपका ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे, इसे कामना सहित, मैं केवल इतना कहता हूं कि मैं डंके की चोट पर कम्युनिस्ट हूं, एक बुद्धिजीवी हूं और एक लेखक हूं। जिसको इससे तड़पना है, तड़पे, गरजे और गालियां बके। यह मेरा सरोकार नहीं।

- प्रदीप तिवारी

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