यशवंत सिंह को भड़ास से क्यों हटाना पड़ा???
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
अजीब लगता है न ये बात जान कर कि यशवंत सिंह भड़ास से कब का चलता कर दिये गये हैं। दरअसल भड़ास नामक मंच एक निश्चित सिद्धांत और दर्शन को समर्पित रहा है जो हिंदी की पट्टी पर लिखने वाले ग्रामीण परिवेश से जुड़े शहरों की तरफ आए लोगों के लिये रहा है, जो कि कहीं न कहीं अभी भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं। पंचसितारा रहन-सहन और ऊंची इमारतों के चालीसवे-पचासवें मंजिल पर रह कर भी बारिश में मिट्टी से उठती सोंधी गंध के लिए दीवाने हैं, चमचमाती बत्तियों में असहज महसूस करते हैं लेकिन लालटेन और मिट्टी के तेल की चिमनी में सहज महसूस कर पाते हैं। एलीट क्लास/आभिजात्य वर्ग में शामिल होने के लिये चेहरे पर कोई मुखौटा नहीं लगा पाने वाले लोग भड़ास के भदेस,ग्रामीण,गंवारू,आंचलिक, मूल भारतीयता के मनोरथ को जिंदा रख पाए हैं। भड़ास ऐसे लोगों का मंच बन पाया जो कि मजदूर वर्ग की भाषा बोल पाने में अधिक सहज महसूस कर पाते न कि मां को गाली भी अंग्रेजी में भी दें, जुबान से कड़वे भड़ासियों ने हमेशा जहां एक ओर शराफ़त का पाखंड करने वाले और सरलता का मुखौटा लगा कर भावनाओं का धंधा करने वालों से नफ़रत पायी है तो वहीं दूसरी ओर उनसे हजार गुना अधिक लोगों का निश्छल प्यार पाया है। एक समय था जब यशवंत सिंह का नाम भड़ास का पर्याय हुआ करता था लेकिन जब इन सज्जन पर खुद ही अंग्रेजी शराब और प्रसिद्धि का नशा चढ़ गया तो इन्होंने भड़ास की प्रसिद्धि को अपने शुद्ध लालच से एक रूप दिया जिसमें सीधे ही भड़ास की लोकप्रियता और भोले भड़ासियों की भावनाओं को विक्रय करा गया है। ईश्वर की दया है कि भड़ास की सुगंध इनकी करतूत से जुड़े होने के कारण इनकी दाल-रोटी के साथ ही दारु मुर्गे का भी खर्च निकलने लगा है। जब इनसे ये कहा गया कि आप जब भड़ास की प्रसिद्धि के टके करा रहे हैं तो मेहरबानी करके देश के कोने-कोने में साइबर कैफ़े में पचास-साठ रुपए प्रति घंटा शुल्क देकर कंटेंट लिखने वाले भड़ासियों को उनकी सक्रियता के आधार पर इस नए उपक्रम में भागीदार बनाया जाए और लाभांश दिया जाए तो इनका सीधा उत्तर रहा कि भड़ासी तो चूतिया हैं वो अपनी भड़ास निकालने के लिये लिखते हैं हमने उन्हें मंच उपलब्ध कराया है ये मेरा निजी मामला है इसमें बेवकूफ़ों की कोई हिस्सेदारी मुझे स्वीकार नहीं है आपको क्या चाहिये वो बता दीजिये, तो भड़ासियों और गैर भड़ासियों आपके सामने है कि हमें क्या चाहिये था उस स्थिति में..... हमें मुखौटाधारी हरगिज बर्दाश्त नहीं हैं तो फिर एक साथी के मुखौटे में एक लालची बनिया जो कि आपकी कोमल भावनाओं की दुकान सजा ले भला कैसे सहन करा जा सकता था। इसलिये भड़ास के अंदाज ने बिना किसी गणित के कि क्या फ़ायदा नुकसान होगा इन्हें भड़ास से चलता कर दिया। एक बात और कि जब तक तकनीकी अधिकार इनके हाथ में थे इन्होंने अकारण ही अपनी दादागिरी के चलते बहुत सारे लोगों को बिना भड़ासियों की जानकारी के हटा दिया था अब वही व्यवहार इनके लिये उचित है। इस पोस्ट से तमाम वे लोग जान जाएं जो कि अभी भी यशवंत सिंह को भड़ास से जुड़ा मानते हैं।
जय जय भड़ास
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें