खुद को आयरन लेडी बताने वाली दिव्या श्रीवास्तव जी आपके वैचारिक लोहे में ज़ंग लग गया है
मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
About You
- Dr.Divya Srivastava
- An iron lady !
- मादाम दिव्या जी ने हाल ही में एक आलेख लिखा है
निर्वस्त्र होने से क्रांति नहीं आती , ना ही न्याय मिलता है
- अक्सर आप ऐसे आलेख अपने चिट्ठों पर लिखा करती हैं जिनकी विषयवस्तु अत्यंत कमेंटाकर्षक हुआ करती है। अनगिनत टिप्पणीकार अपने विचार देकर सामाजिक बदलाव मे इनके साथ शामिल रहते हैं। प्रस्तुत आलेख में इनके विचार काले अक्षरों में अंकित हैं और मेरा विमर्श गहरे लाल रंग के अक्षरों में टंकित है अतः पूरे आलेख का श्रेय मुझे न दिया जाए
रही बात लोगों कि आत्मा झकझोरने कि तो क्या वस्त्र उतारकर प्रदर्शन करना जरूरी है ? इस तरह कि हरकतों से समाज कों एक गलत सन्देश जाता है । ऐसे आचरण से उस युवती ने --
* अपने माता-पिता कों शर्मसार किया ।
* अपने परिवार और मित्रों कों शर्मिंदा किया ।
* अपने लिए तो उसने एक गहरा गड्ढा ही खोद लिया ।
* अपना केस लड़ रहे वकील कों शर्मसार किया ।
* लज्जा का आवरण हटा समस्त स्त्री जाती कों और भी दयनीय बनाया ।
* वेह्शी दरिंदों कों आयी -टोनिक दी और अपना मखौल बनाया।
मैं नहीं जानता कि भड़ास के संचालक किस विचारधारा के तहत इन महोदया को बहन जानते हैं जो कि खुद एक तरफ निशाप्रिया भाटिया को बहन कह कर नैतिक सहयोग की बात करते हैं और दूसरी तरफ इस ज़ंग लगी आयरन लेडी को भी बहन कहते हैं। डा.दिव्या श्रीवास्तव साहस जुटाएं उस लिबेलिबे,जोंक जैसे जुडीशियल सिस्टम के बारे में लिखने का जो कि जुडीशियल माफ़िया के प्रभाव में किसी को भी इस मानसिक स्थिति में ला देता है।
क्या हासिल हुआ इससे ?
* क्या उसे न्याय अब जल्दी मिलेगा ?
* क्या लोगों कि सहानुभूति दोगुनी हो गयी निर्वस्त्र होने पर ?
* क्या न्याय मिलने के बाद उसे शर्म नहीं आएगी अपने आचरण पर ?
* सहानुभूति के विपरीत उसे उसे अब ताने मिलेंगे कि - " बदचलन औरत है , ऐसी औरतों का यही हाल होता है "
एक स्त्री कों किसी भी हाल में अपने आपको लाचार होकर मानसिक संतुलन नहीं खोना है । बल्कि बेशर्मी करने वालों कों इतना त्रस्त करे कि वो स्वयं ही अपने बाल नोचकर और कपडे उतारकर स्त्री के पैरों में गिरकर माफ़ी मांगे। निशाप्रिया भाटिया विद्वान ब्लागर आयरन लेडी डा.दिव्या श्रीवास्तव की तरह ब्लागिंग करके समाज को बदलने की बात नहीं करती बल्कि खुद अकेले सिस्टम से जमीनी लड़ाई लड़ रही है। उन्हें बदचलन बनाने, हो जाने की स्थिति तक पहुंचाने का हरसंभव प्रयास करा गया जिसका प्रतिकार उन्होंने नौकरी खोकर और जेल जाकर किया है और अब उस सिस्टम द्वारा मानसिक रोगी घोषित कर दी गयी हैं। उस साक्षात दुर्गा जैसा तेज रखने वाली मां को किसी चिरकुट की सहानुभूति नहीं चाहिए, वो भारतीय जनता का हिस्सा क्या सहानुभूति देगा जो कि बलात्कार की खबर को भी रस लेकर पढ़्ता है और वो मीडिया जो लुटी हुई आबरू का भी विवरण रसभरे अंदाज में देता है। जरा दिव्या जी एक तरीका बता दें जिससे कि नौकरी से बर्खास्त हुई जेल में रह रही जवान बेटियों की मां निशाप्रिया भाटिया अपनाएं जिससे कि जज, प्रतिवादी या विरोधी वकील त्रस्त होकर अपने बाल नोचने लगें और बेशर्म हो चुका मीडिया गड्ढे में गिरे प्रिंस पर चार दिन तक लगातार कैमरा रख कर कमाई करने की बजाए ऐसे संघर्षकर्ताओं की गाथा को कवर करने लगे।
स्त्री कि हताशा अन्याय करने वालों के हौसले और भी बुलंद करती है। स्त्रियाँ एक से एक भीषण कष्ट और दारुण दुःख से गुज़रती हैं , लेकिन लज्जा कों त्यागकर अमर्यादित नहीं होती ।
मुझे आपके उत्तर का बेसब्री से इंतजार रहेगा और आप इस विषय पर राजनैतिक कुटिलता अपनाते हुए इस मात्र भड़ास कह कर चुप्पी न साध लेंगी।
यदि थोड़ी सी भी शर्म बची हो तो भड़ास पर प्रकाशित इन आलेखों पर नजर डाल लीजियेगा ताकि आपका समाज परिवर्तन का अंदाज और अपेक्षा में बदलाव आ सके, ध्यान रखिये कि मैं कोई मिथिलेश दुबे नहीं हूं कि आपके द्वारा कमेंट प्रकाशित न करने से बिलबिला जाऊं जो सच है उसे खुल कर लिखा है न ही आपको किसी अभद्रता की धमकी दे रहा हूं बस विमर्श का आमंत्रण है।
- रॉ की महिला अधिकारी निशाप्रिया भाटिया की कहानी उन्हीं की जुबानी
- आखिरकार पूर्व महिला RAW अधिकारी को पागल बना ही लिया हमारे सिस्टम ने
जय भड़ास
संजय कटारनवरे
मुंबई
8 टिप्पणियाँ:
संजय तुम्ही तर तुमचे विचार गोळा करुन कुठे ही आपटतात। अरे राजा, दिव्या माझी बहिन, तुम्ही माझे भाऊ,निशाप्रिया भाटिया पण माझी बहिन.... दिव्या धाकटी असुन तरी ही उत्कृष्ट लेखन करती। मी दोघीं मोठी आणि धाकटी बहिन ला बरोबर सहकार्य करायला स्वतः ला अर्पित करतो। कदाचित विचारांचा वेगळा होण्याचा अर्थ हे नाही कि दिव्या निशाप्रिया चा विरोध करतय पण हे तर तिची स्वतंत्रता आहे कि जर तिला निशाप्रिया ची पद्धत आवड़ली नाही तर व्यक्त करावे।
आता बघा पुढ़े काय होतय???
जय जय भड़ास
Part one -
संजय जी,
नमस्ते
ये आपसे पहली मुलाक़ात है । आशा है भविष्य में विचार विमर्श होता रहेगा ।
अब आगे बात करते हैं ....
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part two -
भाई रुपेश के सूचित करने पर यहाँ पहुंची हूँ। अन्यथा आप इंतज़ार ही करते रह जाते । मेरे ब्लॉग पर आने से शरमाया न कीजिये । अपने लेख की सूचना खुद ही देते तो बेहतर रहता । इतनी महत्पूर्ण पोस्ट छूट जाती ।
मेरा ब्लॉग पता है --
zealzen.blogspot.com
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part three --
ब्लॉगजगत का कुछ रिवाज सा हो गया है की गंगाजल से अपना ब्लॉग पवित्र न करके मेरे नाम की पोस्ट लगाकर ही धन्य होते हैं । खैर मुझे कोई आपत्ति नहीं है इस चलन से । मुफ्त में मेरा प्रचार प्रसार करने के लिए आपका आभार ।
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Part four --
रूपेश भाई से शिकायत मत कीजिये की वो मुझे बहन क्यूँ समझते हैं । भाई रुपेश का दिल सोने जैसा है । किसी को बहन का स्नेह देना सबके बस की बात नहीं है । स्त्री का सम्मान सब लोग नहीं कर सकते । भाई बहन के रिश्ते के बीच आने की कुचेष्टा मत कीजियेगा ।
यहाँ पर (थोडा ठहरकर ) भाई रुपेश को दिव्या का सादर प्रणाम।
अब आगे ...
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Part five--
आपने मुझे 'जंग लगी लौह महिला कहा " , जो आपकी ईर्ष्या को दर्शा रहा है । क्या आपको जंग लगे लोगों से संवाद करने का ज्यादा शौक है ?
यदि आप अपने इस अशिष्ट वक्तव को एडिट करेंगे , तभी आगे चर्चा करुँगी । अन्यथा अपमान करने वालों से बात करने से इनकार करती हूँ।
कल प्रातः आकर चेक करुँगी , यदि आपने 'जंग ' शब्द को माफ़ी सहित वापस लिया तो आपसे चर्चा के लिए प्रस्तुत हूँ , अन्यथा नहीं ।
तब तक के लिए 'शुभ-रात्री '
सादर ,
दिव्या ।
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दिव्या बहन यकीन मानिये कि गुरुजी और आपके रिश्ते के बीच कोई नहीं आ सकता वो रिश्तों को इतना मजबूत जोड़ते हैं कि कोई भी दरार शेष नहीं रहती कि कोई झींगुर उसमें घुस सके। रही बात संजय कटारनवरे की तो इन महाशय को हम लोग निजी तौर पर पहचानते नहीं हैं ये यकीनन मेरे गुरू और आपके भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव के इतने बड़े प्रशंसक हैं कि उनकी ही लेखन शैली को पूरी तरह से अपनाए हुए हैं लेकिन शायद ये अभी उनके व्यक्तित्व से पूरी तरह परिचित नहीं हैं। संजय कटारनवरे ने भले ज़ंग लगा ही सही आपके लौहत्व को तो स्वीकारा है वे मानते हैं कि आप अन्य लोगों की तरह लिबलिबे अंदाज में नहीं हैं। बाबू संजय ज़ंग लोहे में ही लग सकता है ये मजबूती सब में नहीं होती।
दिव्या बहन आप जारी रखें लेकिन इन हजरत को जवाब भी दे ही दें।
जय जय भड़ास
संजय कटारनवरे जी आपने जिस तरह लिखा है वह डा.रूपेश श्रीवास्तव की लेखन शैली हो सकती है पर उनका अंदाज हरगिज नहीं है। बहन से ऐसे वार्ता नहीं होती और न ही गुरू से इस तरह चर्चा करी जाती है। डा.रूपेश किसको बहन और क्यों कहेंगे अब क्या उन्हें इस बात की अनुमति किसी आप जैसे से लेनी होगी?आपको दिव्या दी के विचारों से असहमति है तो उसे बनाए रखिए और विमर्श करके किसी सर्वमान्य नतीजे पर आइये लेकिन बहनों से बात करने का तरीका सीख कर वरना आप तो बखूबी जानते हैं कि भड़ासी घोषित तौर पर बुरे, गंदे, गंवार,असभ्य, जाहिल और अशिष्ट लोग हैं। जानते हैं न??और इन सबके असरदार सरदार हैं खुद डा.रूपेश श्रीवास्तव
जय जय भड़ास
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