बौद्धिक आतंकवाद यानि एड्स नामक अस्तित्त्वहीन बीमारी की अवधारणा

रविवार, 30 नवंबर 2008



दुनिया भर में फैलाए गये एक अलग किस्म के आतंकवाद को आज जश्न के रूप में मनाया जा रहा है। ये बौद्धिक आतंकवाद उस आतंकवाद से कहीं ज्यादा खतरनाक है जो कि बम और बारूद से फैलाया गया है। कुछ बरस पहले इसे एड्स नामक बीमारी की अवधारणा के रूप में शुरू करा गया था और अब ये पूरे संसार में जड़ें जमा चुका है। इसलिये इसी खुशी को विश्व एड्स दिवस के रूप में मनाया जाता है। जबकि यह बीमारी वैसी ही है कि अंधेरे में भूत रहता है। इस विषय में डा.रूपेश श्रीवास्तव ने तो इस पूरे आतंकवाद से अकेले ही टकराने की ठानी है और यदि कोई भी इस विषय में अधिक जानना चाहे तो उनके लिखे शोधपत्र की प्रति मंगवा कर पढ़ ले। एड्स एक अस्तित्त्वहीन बीमारी है जिसे बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से जमाया गया है।

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कुर्सी से चिपके हैं काक्रोच

जनता थू -थू कर रही है, लोगों का गुस्सा फुट पड़ा है। लोग नेताओं को गाहे-बगाहे गलियां तक रसीद कर रहे हैं। वीर शदीद संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने तो मुख्यमंत्री को ही घर से भगा दिया। ये जनता का आक्रोश है, जिसे सारा देश महसूस कर रहा है। मुंबई हमले के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और जरी भी है। सबने देखा की किस तरह आतंकियों ने आतंक का नंगा नाच खेला। किस तरह से नेताओं ने राजीनीति का गन्दा राग छेदा। सफ़ेद कुरते पहने, खुसबू से गम्गामाते नेताओं के अचकन सलीके से हैं । कहीं कोई परिवर्तन नही, शायद दुनिया न देखती तो अपनी कुटिल मुस्कान भी बिखरने से बाज नही आते , ये सफेदपोश काक्रोच। इन काकरोचों को कुर्सी की लकडी का नशा चढ़ गया है। जिनको कुर्सी मिली है, वे तो चाहते हैं की इतना चबा लो के आनेवाले काक्रोच को कुछ न मिले। जिसे कुर्सी नहीं मिली है, वे इतने लालायित हैं के चौबीसों घंटे बारहों महीने इनकी लार बरबस चू रही है। जनता ये साफ समझ ले की ये मोटी तोंद और लम्बी काली जुबान वाले सफ़ेद जानवर इस युग के सबसे खतरनाक प्राणी है। हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए की इनकी निति बस राज करने के इर्द-गिर्द घुमती है। इन्हे देश की सुरक्षा से क्या लेना-देना है, जबकि ख़ुद इन कायरों की सुरक्षा में करोड़ों रुपये फूंक दिए जाते हैं। ये पैसा इनके पिछले जनम की कमाई है या हम गरीबों के खून- पसीने के उपजाई। जनता जबाब मांग रही है ? मगर किससे? कुर्सी के गोडे से चिपके सफ़ेद कक्रोच्नुमा जानवरों से ? मांगो जनता मांगो ! अरे येही तो ये चाहते हैं की जनता कुछ मांगे। ताकि ये जानवर कुछ देर के लिए इन्सान बनकर जनता को दिलासा दिलाएं और अगली बार चुन कर आने पर फिर आराम से पाँच साल तक कुर्सी चबाएं। हमारा जनता से नम्र निवेदन है की ऐसे तिलचट्टों , काकरोचों, गिरगिटों को पहचानें, इन्हे सरकार तो क्या अपने घर में न घुसाने दे।
लोकतंत्र खतरे में पड़ गया लोकतंत्र के रखवालों से ,

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मुर्गी का अंडे सेना,शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना

बचपन में एकबार रजुआ ठाकरे ने बलुआ ठाकरे से पूछा कि काका जी! ये सेना क्या होता है? बलुआ ने एक मुर्गी की तरफ हाथ दिखा कर कहा कि देखो बेटा रजुआ ये मुर्गी क्या कर रही है। रजुआ ने उत्तर दिया कि काकाजी ये मुर्गी अपने अंडों के ऊपर बैठी है। बलुआ काका ने बताया कि रजुआ बेटा इसी को सेना कहते हैं, मुर्गी अंडे से रही है। फिर जब बलुआ काका को परिस्थितियों ने कान पकड़ कर मुर्गा बनाया तो वे कुछ लैंगिक समस्या के चलते मुर्गा बन तो गये लेकिन हरकतें मुर्गियों जैसी करने लगे। उन्होंने भी हिंदुत्त्व के मुद्दों के अंडे दिये और "सेना" शुरू कर दिया। इस प्रकार एक सेना बन गयी। अब जब रजुआ बड़ा हुआ तो उसे भी कुछ तो सेना था तो उसने थोड़ा छोटा अंडा दिया और उसे सेना शुरू कर दिया। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के लोगों को सेना शब्द का अर्थ ही नहीं पता है। अरे मुर्गियॊं के चूजों! सेना उसे कहते हैं जो अभी मुंबई में आयी थी जिसे तुम लोगों ने जय महाराष्ट्र कह कर नहीं बल्कि जय हिंद कह कर धन्यवाद करा कि आपने हमारे शहर की रक्षा करी। बलुआ और रजुआ तो अपने बिलों में घुस कर मुद्दों के अंडे से रहे थे अपनी सेना वाली कला दिखा कर अब जब एक सप्ताह बीत जाएगा इस आतंकवादी घटना को उसके बाद फिर दोनो बलबलाने लगेंगे अपने अपने अंडे उछाल कर......
जय जय भड़ास

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मैंने भड़ास की सदस्यता ली.

भडासी मित्रों,
मैंने ब्लॉग की दुनिया में अभी अभी पदार्पण किया है और भाई रजनीश जी के साथ साथ डोक्टर रुपेश जी से चाहूंगा कि मेरे लिए मार्गदर्शन करें.

अपनी अभिव्यक्तियों को शब्द देने के लिए आपके उत्साहवर्धन की जरुरत रहेगी.

जय जय भड़ास

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रजनीश भाई की भड़ासी टिप्प्णियों पर मठाधीशी कैंची...

शनिवार, 29 नवंबर 2008

हमारे रजनीश भाई ठहरे भयंकर भड़ासी; सो भड़ास पर जो करते हैं सो करते ही हैं और जब ज्यादा उबकाई आने लगती हैं तो अन्य ब्लागॊं पर भी जाकर अपनी तेजाबी टिप्प्णियों से लोगों की सुलगाने लगते हैं। एक निवेदन कर रही हूं इस पोस्ट के द्वारा इन हजरत से कि महाराज अब कसम खाइये कि किसी मुद्दे पर अगर किसी ने हगा-मूता है तो आप उसका विश्लेषण करने न जाया करें जो करना है यहीं करिये वरना क्या होता है आपको पता है न? आपकी टिप्पणियों को डिलीट कर आपसे अत्यंत कुटिलता पूर्ण मैत्री भाव दिखाते हुए माफ़ी मांग ली जाती है। हम आपकी टिप्पणियों की दिल से इज्जत करते हैं, आपकी हर टिप्पणी में कड़वी दवा जैसा असर होता है। आप दिशा देने की क्षमता रखते हैं तो मेहरबानी करिये और कहीं और किसी को उंगली मत करिये। हमारा समूह ब्लाग ही लोगों के शराफत के मुखौटे के चिथड़े उड़ाने की ताकत रखता है। हम मठाधीशी कुटिलता से परे हैं भले हमें लोग बुद्धू और ढक्कन समझें हमें कुबूल है लेकिन यही हमारी ताकत है जो हम बाजार से नहीं खरीद कर लाए, ये ताकत तो भीतर से पैदा होती है।
जय जय भड़ास

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मुंबई पर आतंकवादी हमला और जनभावना......

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

SMS No.1 Where is Raj Thackeray and his ''brave'' Sena? Tell him that 200 NSG Commandos from Delhi (No marathi manoos! All South & North Indians!) have been sent 2 Mumbai.
SMS No.2 Goli ke jawab goli sey deney waley Maharastra k Dy CM RR Patil ki goli kaha gayi? Kaha gaya Mumbai ka so called rehnuma raj thakary, uski mumbai ko kyu bacha rahey hain gair marathi loag...Apni jaan deney waley NSG ke Major kya Marathi the....MNS ki sena ney maa ka doodh piya hai to bahar aayey...Jai Hind
SMS No.3 Plz forward Raj Thackeray's phone no. if u find it. Dnt no where he is when u need him. We want him to go and save amchi mumbai alongwith his MNS goondas, ''THE" sons of the soil. Army, NSG commandoes are not Marathi Manoos...Why should they fight or lay their life for Mumbaikars......उपरोक्त तीन एसएमएस आज मुझे दिन में मिले। पहला वाला शरद ने भेजा, दूसरा शलभ ने और तीसरे साथी का नाम मेरे सस्ते वाले मोबाइल में सेव नहीं है क्योंकि केवल 250 मोबाइल नंबर ही सेव करने की क्षमता मेरे मोबाइल में है और इन्हीं में से डिलीट व रिप्लेस व सेव करता रहता हूं। तो, इन तीनों साथियों के एसएमएस में जो कामन बात थी वो राज ठाकरे और उनके लोगों को ये नसीहत देना कि बेटा, बहुत मराठी मराठी करते थे, अब जब फटी पड़ी है तो देखो किस तरह देश के कोने कोने से सेना में सेवा दे रहे जवान तुम लोगों की धरती बचाने के लिए अपनी जान देने आए हैं। अरे, राज ठाकरे और आर आर पाटिल, तुम लोगों में थोड़ी भी हिम्मत होती तो अपने लोगों को साथ लेकर आतंकवादियों से दो दो हाथ करने के लिए कम से कम सामने तो आते। लेकिन ये लड़ेंगे क्या, चेहरा तक दिखाने सामने नहीं आ रहे हैं।मैं इन तीनों एसएमएस को इसलिए यहां डाल रहा हूं ताकि आप लोग भी इसे अपने मोबाइल में टाइप कर या मेल में डालकर ज्यादा से ज्यादा लोगों को भेजें और बताएं कि क्षेत्र, जाति और धर्म के नाम पर बंटवारा व मारपीट कराई ही इसलिए जाती है क्योंकि इसके आधार पर राजनीतिक लाभ लेना होता है और इस लाभ के जरिए देश या प्रदेश की सत्ता हासिल करनी होती है या सांसद या विधायक या पार्षद बनना होता है। ये जो राजनेता लोग हैं, वो इस वक्त सबसे गिरे हुए लोग हैं और दुर्भाग्य से इन्हीं लोगों के हाथों में देश के भविष्य को तय करने वाली नीतियों पर फैसला लेने की ताकत है। ऐसे में कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि क्षेत्र, जाति या धर्म के आधार पर राजनीति किए बिना ये कैसे चुनाव जीत पाएंगे। क्योंकि चुनाव में वोट मांगने किस आधार पर जाएंगे। जनता उनके काले कारनामों का हिसाब न मांगे इसलिए वो जनता को जाति, भाषा या धर्म के आधार पर लड़ा देते हैं, और जनता ससुरी पगलिया के लड़ भी जाती है। बस, फिर क्या, पोलराइजेशन तगड़ा हो जाता है। दे दनादन वोट गिरने लगते हैं हिंदू-मुस्लिम के आधार पर, हिंदी गैर हिंदी के आधार पर, दलित सवर्ण के नाम पर.........................धन्य है अपन का देश। और इस देश की हम जैसी जनता। हम साले चोर टाइप के लोग अपने खोल में जीते रहेंगे, राजनीति में नहीं आएंगे क्योंकि मान चुके हैं कि ये ठग्गूवों का काम है। और ठग्गू जब हम लोगों को आपस में लड़वा देते हैं तो भी हम नहीं समझ पाते कि ये जो चिरकूट ठग्गू हैं, हमें बिना मुद्दे को मुद्दा बनाकर लड़ा रहे हैं। हम भी करने लगते हैं जय हिंदू या मार मुस्लिम या अल्ला हो अकबर और काफिर हिंदू.......यही वक्त है समझने का। देश मुश्किल में हैं। सिस्टम भ्रष्टतम स्थिति में है। सब साले पैसा ले लेकर आतंकवादी घुसा रहे हैं। आईबी या इंटेलिजेंस या रा या सीबीआई या पुलिस.....सबमें दो तिहाई से ज्यादा लोग सेटिंग गेटिंग वाले हो गए हैं, जुगाड़ पानी से आए हुए लगते हैं.....किसी को कुछ खबर ही नहीं लगती कि आखिर इतने आतंकी इतने सारे हथियार लेकर कहां से चले आते हैं........अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, जर्मनी समेत ज्यादातर देशों में आतंकवाद विरोधी कानून अलग से बनाए गए हैं लेकिन अपने देश के ये चिरकुट नेता साले कभी सोचते भी नहीं हैं कि आतंकवाद को सबसे बड़ा खतरा मानकर इससे निपटने के लिए समुचित कानून बनाया जाए। पुलिस तो बिना हेल्मेट के जा रहे दो पहिया वाले को पकड़कर वसूली करने में लगी रहती है, उसे कहां चिंता है कि कार की डिग्गी में विस्फोटक लादे टाई कोट वाले भाई साहब चले जा रहे हैं। उसे तो कार देखकर ही डर लगता है, पता नहीं कितना बड़ा सोर्स सिफारिश वाला होगा, वर्दिया न उतरवा दे.......।क्या कहा जाए, कुछ कहा नहीं जाएबिन कहे कुछ, रहा नहीं जाए.....भड़ासियों, चलो कुछ हम लोग भी सोचा जाए इस दिशा में, कुछ करा जाए इस दिशा में, क्यों न रीजनीति में कूदा जाए हम लोग भी.....सोचो जरा.......कब तक शरीफ के नाम पर अपनी और अपने देश की मरवाते रहेंगे.....अब ढिठाई के साथ अच्छे लोगों को आगे बढ़ना चाहिए और उसी बेशरमी से अच्छी राजनीति करनी चाहिए जिस बेशरमी से गंदे नेता गंदी राजनीति करते हैं......लेकिन सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन?
जय जय भड़ास
((हां, आतंकवादी हमले के मामले पर भड़ास के साथियों ने जिस तरह की भावोत्तोजक पोस्टें डाली हैं, उसे पढ़कर वाकई यह समझ में आता है कि सिस्टम के नाकारेपन को लेकर देशभक्तों के दिल में कितना दर्द है, मैं आप सभी लिखने वालों को सलाम करता हूं जो अपनी दिल की भड़ास को प्रकट निकाल पाए लेकिन इस भड़ास निकालने से ही दिल हलका कर लेने की जरूरत नहीं है। ये जो सीने में आग लगी है, इसे सही मंजिल तक पहुंचाना जरूरी है वरना कल को हम फिर शांत हो जाएंगे और परसों फिर कहीं आतंकी हमला होगा))

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मैं आ रहा हूँ

मैं आ रहा हूँ दोस्तों मुझे स्वीकार करो
मुझ बेचारे पर थोड़ा सा तो उपकार करो
मैं आ रहा हूँ दोस्तों मुझे स्वीकार करो
धूल से सना, पगडंडियों पर लड़खडाता
गवारों सा चिल्लाता, मैं चला आ रहा
मेरे इस हालत पे न शिकवा करो
मैं आ रहा हूँ दोस्तों मुझे स्वीकार करो
कब से वीरान, सुनसान सी गलियों में
धुप्प अंधेरे से बतियाता, गुनगुनाता हुआ
बढ़ता रहा, कोई तो मेरा हाँथ धरो
मैं आ रहा हूँ दोस्तों मुझे स्वीकार करो
मैं क्या किसी से मजाक करूँ मालिक
किरकिरी तो मेरी रोज ही हो जाती है
भूखा हूँ थोड़े प्यार का, इसे दान करो
मैं आ रहा हूँ , दोस्तों मुझे स्वीकार करो ..............

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मनोरंजन प्रेमी कोई मेरे जैसा आतंकवादी ........

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

जिस तरह से A Wednesday नामक फ़िल्म में उस फ़िल्म का मेन कैरेक्टर नसीरुद्दीन शाह अपने खिलाफ़ करी जाने वाली हर कार्रवाई को सीधे ही टी.वी. पर देख रहा होता है ठीक उसी तरह हमारे देश के सारे न्य़ुज चैनल जो कि सबसे तेज रहते हैं कि ये खबर सबसे पहले हमारे चैनल ने दिखायी ऐसी दुहाई देते रहते हैं इस कंपटीशन में सब दिखाये जा रहे हैं मनोरंजन प्रेमी कोई मेरे जैसा आतंकवादी हर आधे घंटे में पांच-दस मिनट हर न्य़ुज चैनल देख लेता होगा और बाकी समय कार्टून नेटवर्क और पोगो चैनल देखता होगा कि हमारे लिये ससुर और साले किस तरह से इंतजाम कर रहे हैं फिर वो उस जगह पर जाकर एक ग्रेनेड फेंक कर आता होगा और चैनल बदल कर कार्टून देखता होगा, कब ये साले न्युज चैनल वाले इस तरह की संवेदनशील बातें खबर बनाने के चक्कर में दिखाना छोड़ेंगे. बाजार में अगर आप बीस किलो सब्जी भी खरीद कर घर लाएं तो लोगों की नजर में आ जाती है इतना सारा गोला-बारूद हमारे शहर में आ जाता है और सुरक्षा इंतजाम करने करने वालों को हवा तक नहीं लगती?

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मुझसे गुडी-गुडी लेखन होता ही नहीं





मैं क्या करूं कि मुझसे गुडी-गुडी लेखन होता ही नहीं कि बस एयरहोस्टेस की तरह "पेन्टेड स्माइल" चेहरे पर सजा कर लिखती रहूं कि हे सभ्य कहलाने वालों तुमने हमें क्यों लैंगिक विकलांग होने के कारण जीवन भर गली के कुत्तों से भी बदतर जिंदगी जीने को छोड़ दिया तुम्हें सभ्यता का वास्ता.....। मैं अपनी टीस भी बताऊं तो सुर में गाकर बताऊं अगर ऐसी अपेक्षा किसी भले आदमी को है तो मैं बुरी ही रहना पसंद करती हूं। हजारॊं साल की सामाजिक सोच को अगर बदलना है तो हमें विनम्र होकर इस सभ्य लोगों को समझाना पड़ेगा जिससे एक जनाआंदोलन खड़ा हो जाएगा और लोग हम जैसे बच्चों को सहज ही परिवार में स्वीकारने लगेंगे मैं इस बातो से इत्तेफ़ाक नहीं रखती। मेरे साथ जो हुआ वह इन स्वयंभू सभ्य लोगों ने ही किया है ये विनम्रता की भाषा नहीं समझते हैं। मेरे डैडी डा.रूपेश श्रीवास्तव ने मुझे पढ़ने के लिये बहुत सारी पुस्तकें दी हैं उनमें से एक है हिंदुओं की धरम पोथी ’राम चरितमानस" जिसमें एक जगह लिखा है कि भगवान राम जब तीन दिन तक समुन्दर के किनारे पूजा-प्रार्थना करते रहे तब तक समुन्दर ने उन्हें रास्ता नहीं दिया लेकिन जब उन्होंने धनुष उठाया तब डर कर रास्ता दे दिया, दोहा ऐसा है कि "विनय न मानत जलधि जड़ गये तीन दिन बीत। बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत ॥" मैं जब तक जी भर कर अपन पीड़ा को बाहर न निकाल लूंगी अंदर ही अंदर कुछ घुटता रहेगा। मैने मुनव्वर सुल्ताना खाला की पुरानी पोस्ट्स पढ़ी हैं वो तो एकदम भयंकर लेखन करती हैं तो अगर किसी को लगता है कि मैं कड़ी बात लिखती हूं तो मैं अब से कुछ दिनों तक आप सब को अपनी मुनव्वर मौसी जी की कुछ पुरानी पोस्ट्स का स्वाद चखाउंगी तब बताइयेगा कि क्या मैं अंदर ही अंदर घुट कर पागल हो जाऊं। जब लिखने का मौका मिला है तो बेकार का सेंसर मत लागाइयेगा।

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आतंकवादी मुंबई में दाखिल हो जाते हैं......

बुधवार, 26 नवंबर 2008

एक बार फिर मुंबई आतंकवादियों की गिरफ़्त में है लेकिन क्या कारण है कि समुद्र के रास्ते से ये आतंकवादी मुंबई में दाखिल हो जाते हैं और हमारी समुद्रों के तटों पर हमेशा चाक-चौबंद रहने वाली नौसेना के कोस्टल गार्ड्स इन्हें सूंघ तक नहीं पाते। नेशनल सिक्योरिटी गार्ड बुला लिये जाते हैं और फिर वही जनता को दिखाने का एक्शन ड्रामा चलता है। जनता कब समझेगी कि देश में क्या हो रहा है? इस घटना के बाद बस चार दिन तक रेलवे स्टेशनों पर गरीब यात्रियों को सामान चेक करने के बहाने सताएगी लूटेगी फिर सब सामान्य हो जाएगा अगले विस्फोटों के होने तक। किसी टीवी सीरियल के एपिसोड्स की तरह हमारे महानगरों में बम ब्लास्ट होते हैं और जनता का न्यूज चैनलों पर ये सब दिखा कर मनोरंजन करा जाता है फिर कुछ दिन बाद फिर सारे न्यूज चैनल कामेडी और क्रिकेट दिखाने लगेंगे। अब तो बस इस बात का इंतजार है कि लोकल ट्रेन में आते जाते कोई ऐसी सीट खाली मिले जिस के नीचे बम रखा हो(इतनी भीड़ रहती है कि बम वाली सीट पर लोगों को पता होने पर भी बैठने को दौड़ पड़ेंगे) मैं भी उसी पर जा कर बैठ जाउंगी ताकि मुक्ति तो मिले इस सतत तनाव से......
जय जय भड़ास

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मेरी पोस्ट पर टिप्पणी करने से आप हिजड़े बन सकते हैं


जैसे-जैसे मैं लिखना तीखा करती जा रही हूं देख रही हूं कि लोग बिदक कर भाग रहे हैं। एक बड़ी साधारण सी बात कहना है कि यही पोस्ट अगर किसी लड़की की होती भले ही कितनी भी मूर्खतापूर्ण होती, बकवास होती या लटका-पटका की तुकबंदी जोड़ कर लिखनी वाली कोई कवियत्री होती तो उस पर कम से कम बीस-पच्चीस टिप्पणीकार लार टपकाते आ गये होते लेकिन हम लोगों का लिखा भी पढ़ लेने से लोगों को छूत लग जाती है, शायद लगने लगता है कि कहीं हमें भी "अर्धसत्य" पर टिप्पणी कर देने से या प्रोत्साहित कर देने से लैंगिक विकलांगता का इन्फ़ेक्शन न हो जाए और हम भी हिजड़े बन जाएं। मैं इस पोस्ट के द्वारा हम सबके धर्मपिता व गुरू डा.रूपेश श्रीवास्तव से निवेदन कर रही हूं कि अब वे कम से कम मेरी लिखी किसी भी पोस्ट पर कोई भी टिप्पणी न प्रकाशित करें। मुझे किसी की मक्कारी भरी सहानुभूति नहीं चाहिये। जब से मैंने लोगों के बनावटी मुखौटे नोचने खसोटने शुरू करे हैं हिंदी के छद्म शरीफ़ ब्लागरों में खलबली है, जवाब नहीं देते बनते इस बड़े-बड़े बक्काड़ और लिक्खाड़ लोगों से। हमारे कुनबे को हम खुद ही संवारने का माद्दा रखते हैं। मैं इस सोच से एक और फ़ायर-ब्रांड बहन को जोड़ रही हूं।

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निष्ठा पत्रकारिता की.......

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

बचपन से पत्रकार और पत्रकारिता को देखता आया हूँ। बहुत छोटा सा था जब पटना से प्रकाशित और हिन्दुस्तान के कुछ सबसे पुराने और प्रतिष्ठित अखबार के अन्ग्रेज़ी संस्करण "दी इंडियन नेशन" के सम्पादक मेरे एक नाना जी हुआ करते थे, बड़ा हुआ तो घर में मीडिया संस्थान से जुड़े लोगों की बाढ़ सी आ गयी, कोई सम्पादकीय में तो कोई विज्ञापन में सर्कुलेशन से लेकर प्रोडक्शन तक में मेरे घर के लोग आ चुके थे पत्रकारिता और राजनीति का चोली दमन का साथ होता है सो हमारे घर में भी था। बताता चलूँ की मैं अपने ननिहाल की बात कर रहा हूँ क्यौंकी मेरा बचपन ननिहाल में ही बीता है।
नाना जी का इंडियन नेशन और इसी का हिन्दी संस्करण आर्यावर्त हमेशा से मेरा पसंदीदा रहा कारण साफ़ है की अपने कंटेंट ने सर्चलाइट पब्लिशिंग को हमेशा प्रतिष्ठा में बनाये रखा। मेरी अखबारों में रूचि और उसका विश्लेषण करना मेरे नाना जी को हमेशा भाता रहा और ये ही कारण था की वो हमेशा चाहते थे की मैं पत्रकारिता में आऊं। मगर बाद के पीढी के मीडिया में आने और उस से बने मीडिया की छवि ने हमारे घर के माहोल को बदला और सभी मेरे ख़िलाफ़ की मैं पान की दूकान कर लूँ मगर इस क्षेत्र में मुझे ना जाने दिया जायेगा।
यानि की निष्ठा पर प्रश्न, पत्रकार की निष्ठा पर प्रश्न, पत्रकारिता की निष्ठा पर प्रश्न, मीडिया की व्यवसायीकता में कुचले पत्रकारिता की निष्ठां पर प्रश्न। मैंने बड़े करीब से इसे देखा और इस प्रश्नचिन्ह को स्वीकार भी किया।
माफ़ी चाहूँगा शायद कुछ ज्यादा ही लिख गया जो शब्दों को जाया करना हो सकता है, बहरहाल चर्चा एक घटना मात्र की करूंगा जिसे मैंने देखा और बस देखता रहा, ऊपर की जो मेरी अभिव्यक्ती है को इस तरह के घटनाक्रम ने हमेशा बल दिया और आज मुझे ये कहने से कोई गुरेज नही की सभी जगह से समाप्त निष्ठां का लोकतंत्र के चौथे खम्भे ने प्रचार प्रसार की ठिकेदारी तो ली मगर अपने निष्ठा का चीरहरण ख़ुद किया है।
कुछ महीने पूर्व मुंबई में था, रोज ही वाशी स्टेशन से परेल तक दुपहरी में जाता और गए रात वापस आता था। ये ऐसा समय था जब अमूमन पत्रकार लोग भी ट्रेन में ही होते हैं। अपने आप में मस्त गेट से खड़ा होकर जब रेल में सफर करता तो आस पास पत्रकारों के टोली की बातें आकर्षित करती थी मगर अपने धुन में रहने वाला इन से सम्पर्कित होने के प्रयास से इतर ही रहा।
खैर चर्चा सिर्फ़ एक घटना की करूंगा जिसने मेरे अंतरात्मा तक को हिला कर रख दिया। वापसी में लगभग रोज ही परेल स्टेशन पर एक युवा जोड़ी मुझे दिखता जो साथ ही एक ही डब्बे में वाशी तक आता था। ना सुनने की इच्छा के बावजूद इतना कह सकता हूँ की दोनों ही अलग अलग अखबार में काम करने वाले शायद दम्पति थे। कभी कभी बैठने के कारण इतना जान पाया की दोनों हिन्दुस्तान के दो बड़े ही प्रतिष्ठित अखबार के पत्रकार थे जिनमे से मोहतरमा प्रतिष्ठित इंडियन एक्सप्रेस से थीं और मोहतरम मुम्बई की बड़ी अखबार डी एन ऐ से संबध थे। धन्य हो पत्रकारिता।
एक रात का ये हादसा है जब हम बैठे हुए थे आमने सामने, दोनों में से एक ने वहां का एक स्थानीय अखबार निकाला, अपने जिज्ञासा पर दोनों ने बहस किया, अखबार का मजाक उडाया और अंत में दंपत्ति ने, पत्रकार दंपत्ति ने, पत्रकारों की जोड़ी ने उस अखबार को चलती हुई ट्रेन से यूँ फेंका मानो कचरे के डब्बे से कचड़ा बीने वाले के हाथ गंदगी से भी ज्यादा गंदा हाथ में आ गया हो।
जहाँ पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हो, पत्रकार लोक की आवाज और निष्ठां के प्रति जवाबदेह भी, मगर जब एक पत्रकार अपने पत्रकारिता के प्रति निष्ठित ना हो, अपने धर्म के प्रति निष्ठित न हो अपने कर्म के प्रति निष्ठित न हो, व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में मेरा अखबार बढिया बाकी सभी औने पौने के साथ लाला जी की चाकरी करता हो, मगर अहम् का दंभ सबसे ज्यादा सबको निष्ठा की सीख देने वाला क्या अपने प्रति निष्ठित है, अपने धर्म के प्रति निष्ठित है।

प्रश्न इसलिए क्यूंकि जिम्मेदारी और संवेदना से भरा हुआ है। मगर बदलते दौर के साथ बदलती पत्रकारिता में व्यवसायिकता का रस ने पत्रकारों से जिम्मेदारी और निष्ठा समाप्त कर दिया है। हमें कोई ऐतराज नही यदि आप व्यवसायिक पत्रकार हैं, मगर कहना सिर्फ़ इतना की आप व्यावसायिक हैं तो समाज का आइना मत बनिए। लाला जी का चाकर हमारा चौथा खम्भा कभी नही हो सकता।

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अपने पंटर पप्पू हटेला की कविता

शनिवार, 22 नवंबर 2008

ओए भैण का टका तू मुझे फोड़ने आया
तेरी इतनी हिम्मत की मेरी सुपारी खाया
ओए भैण का टका........
सोनिया मैडम करती है अपुन को सलाम
दाउद की फट जाती है सुनकर अपना नाम
ओए भैण का टका........
मैंने उसकी बेटी को भेजा जो गुलाब
ओसामा के मामा को हो गया जुलाब
ओए भैण का टका........
मेरी दम पर करते सारे शाणे रॉक एंड रोल
खुली हुई सड़कों पर मूतूं मैं पैट्रोल
ओए भैण का टका........
दूध पीते बच्चे अपने लेकर राइफ़ल बम
पालने में लेटे-लेटे देते सबको दम
ओए भैण का टका........

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N.C.P. यानि NATIONAL COWARD PARTY, ये तो "गे" लोगों से तक डरते हैं

दो दिन पहले की बात है कि मैं मुंबई के एक उपनगर बान्दरा में अपने काम से गयी तो देखा कि करीब १०० लोग नारेबाजी करते हुए एक सिनेमा घर के बाहर उसका पोस्टर काला कर रहे हैं। वैसे तो इस तरह की बातें मुंबई में अब आम हो चली हैं लेकिन मैं भी ठहरी भड़ासिन तो बस घुस गयी भीड़ में ये जानने के लिये कि आखिर क्या नौटंकी हो रही है। शरद पवार की पार्टी N.C.P. की बान्दरा शाखा के अध्यक्ष महोदय ने ये ड्रामा चला रखा था कि अभिषेक बच्चन और जान अब्राहम की फिल्म "दोस्ताना" समलैंगिक संबंधों को प्रोत्साहन दे रही है और भारतीय भोली जनता फिल्मों से ही सीख कर जीवन जीती है इसलिये इस फिल्म का प्रदर्शन रोका जाए ताकि हमारे युवा समलैंगिक बनने में गर्व न महसूस करने लगें। अब इन फट्टुओं को कौन बताए कि पोस्टर पलट कर विरोध नहीं करता है, अभी १३ तारीख को ही आजाद मैदान में करीब डेढ़ सौ "गे" और "लेस्बियन" लोगों ने समान कानूनी अधिकारों के लिये जब प्रदर्शन करा तब ये ’बंदर बहादुर’ उनकी फाड़ने क्यों नहीं गये क्या ये उन गये-गुजरे मनोयौनरोगियों से भी डरते हैं जो खुलेआम कह रहे हैं कि हमें समलैंगिक होने पर गर्व है और इसे कानूनी मान्यता दी जाए। अगर सचमुच इस "आई लव इंडिया" नामक N.G.O. चलाने वाले चिरकुटों में दम है तो इन लोगों का एक बाल भी उखाड़ कर दिखाएं।
जय जय भड़ास

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काश हमारे नेता आस्ट्रेलियन होते....

अरे भाई लोगों पिछले सप्ताह हिन्दुस्तान टाइम्स के मुंबई संस्करण में एक समाचार पढ़ने को मिला कि आस्ट्रेलिया में एक नया राजनैतिक दल रजिस्टर हुआ है जिसका नाम है "नेशनलिस्ट सेक्स पार्टी", इस पार्टी से जुड़े लोगों का कहना है कि उनका एजेंडा और मेनीफ़ेस्टो आदि मात्र एक सूत्रीय है और वह है सेक्स...सेक्स....सेक्स और बस सेक्स। यारों शायद इस पार्टी के लोगों ने हमारे एक हिंदी ब्लागर मित्र की बात को दिल पर ले लिया है जो कि मनीषा दीदी को बता रहे थे कि सेक्स जीवन का अभिन्न अंग है क्या आप बिना सेक्स के किसी किस्म की कुंठा नहीं महसूस करती हैं। यह पार्टी उन लोगों करीब बीस लाख लोगों को लक्ष्य में रख कर बनायी गयी है जो येन-केन-प्रकारेण पोर्नोग्राफी या अन्य सेक्स व्यवसायों से जुड़े हैं। अगर इस तरह की कोई राजनैतिक पार्टी हमारे देश में बन जाए तो गुरू गजब हो जाएगा; तमाम राजनेता दल बदल कर इस पार्टी में शामिल होने दौड़ पडेंगे फिर चाहे वह बीजेपी के हों या कांग्रेस या चिट्टू पिट्टू पार्टियां। अरे सोचो यारों इस देश में राजनेताओं ने धर्म से लेकर भाषा तक को मुद्दा बना कर पार्टियां बना रखी हैं सन १८५७ की भट्ठी पर राजनीति की रोटियां अब तक सेंकी जा रही है तो क्या इस महाविचार पर कोई राष्ट्रीय राजनैतिक दल हमारे देश में नहीं बन सकता?
जय जय भड़ास

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राजनीति में षंढ,शिखंडी,नपुंसक,किन्नर,छक्के और बृहन्नलाएं

शनिवार, 15 नवंबर 2008

एक बार फिर से शबनम(मौसी) के बाद मध्यप्रदेश की राजनीति में एक "किन्नर" ने शिवपुरी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा दाखिल करा है । लालीबाई पुकारे जाने वाले किन्नर के समर्थन में अनपढ़ और जाहिल बना कर रखे गये लैंगिक विकलांग बच्चों की एक बड़ी फौज खंडवा, भोपाल, ग्वालियर, कोलारस,सतनवाड़ा,जबलपुर,इंदौर,रीवा,सतना आदि स्थानों से एकत्र करके शिवपुरी पहुंचा दी गई है। बेचारे बच्चे अपना भला-बुरा तो समझते नहीं हैं इसलिये उन्हें उनके गुरू और नायक धर्म व परंपरा आदि के नाम पर जो समझा कर भेज देते हैं वो सब उसी को ब्रह्मवाक्य मान कर कभी बाहर निकलने की खुशी में तो कभी मजबूरी में करने लगते हैं। ये बच्चे लालीबाई को जिताने की कवायद में पैसा भी एकत्र करेंगे।मेरी ओर से बस इतना कि शबनम(मौसी) ने चुनाव जीत कर लैंगिक विकलांगों के लिये क्या कर सकती थीं और क्या नहीं करा ये तो मैं आपको बताती चलूंगी लेकिन उस क्षेत्र के गुरूघंटालों के मुंह मेंराजनीति का खून लग गया है। जीतने के बाद जब उनसे पूछा जाता है कि आपने अपने समाज के उत्थान के लिये क्या करा तो उत्तर रटा हुआ है कि मैं हिजड़ों की नहीं "जनता" की नेता हूं इसलिये समाज या समुदाय विशेष की संकीर्ण बातें मुझसे मत करिये। राजनीति में हर तरह के लोग यानि षंढ, शिखंडी, नपुंसक,किन्नर, छक्के और बृहन्नलाएं आ जाएंगे पर लैंगिक विकलांगों को इस रेलम-पेल में हाशिये से भी अलग धकेला जा रहा है और कथित बुद्धिजीवी बस सहानुभूति के मालपुए छान कर मलाई चाटेंगे जिससे कि ’बिल गेट्स फाउंडेशन’ से सामाजिक मुद्दों पर शोध के लिये पैसा झटका जा सके। मैं इस बात की प्रबल संभावना जता रही हूं कि लालीबाई जीतेगी। आप क्या कहते हैं जरूर बताइये।

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"बी प्रोफेशनल"

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

आज रूपेश भइया के सौजन्य से भड़ास पर लिखने का मौका मिला है। अपने लेखन में इमानदारी बरतने के साथ कोशिश करूँगा की मै भी आप लोगों जैसी अच्छी लेखन शैली में अपनी बातों को समझा सकूँ। बहरहाल अब मै अपने इस शीर्षक पर आता हूँ। आज कल एक बात मेरे लिए शोध का विषय बनी हुई है - "प्रोफेशनल शब्द की सही व्याख्या क्या है?" मैंने इस बारे में पहले भी लिखा है आज आप सभी के सामने रख रहा हूँ जो इस शब्द का निष्कर्ष मैंने निकालाहै।
आप किसी भी फील्ड से जूड़े हों। आपको दो शब्दों की एक लाइन अक्सर पेशे से जूड़े हुए अपने साथी और बॉस से सुनने को मिलती होगी, "Be Professional" आखिर प्रोफेशनल होना किस चिडीया का नाम है। हम सब जब तक अपने अपने पेशे से नहीं जूड़े थे तब तक तो यही जानते थे कि प्रोफेशनल होना मतलब अपने काम के प्रति ईमानदार होना। काम के समय सिर्फ काम के बारे में सोचना. एक कहानी भी बचपन में पढ़ी थी. सरदार वल्लभ भाई पटेल एक बार कोर्ट में किसी खास मुक़दमे की बहस में व्यस्त थे. उसी बीच उनके पास एक पत्र आया. उन्होंने पत्र पढ़कर जेब में रख लिया और अपना काम जारी रखा. बहस ख़त्म होने के बाद उन्होंने अपने दोस्तों से बोला कि उन्हें अभी तुंरत वहां से जाना होगा. क्यूँ कि उनकी बीवी का देहांत हो गया था. यह सूचना उन्हें कोर्ट में बहस के दौरान उसी पत्र से मिली थी. फिर भी उन्होंने अपना काम जारी रखा. मैं सोचता था कि प्रोफेशनलिज्म का इससे बेहतरीन उदाहरण हो ही नहीं सकता. पर मैं गलत था, कम से कम उस परिप्रेक्ष्य में जिस में आज प्रोफेशनलिज्म की परिभाषा दी जाती है. पत्रकारिता के पेशे से आप जुड़े हैं तो प्रोफेशनलिज्म का मतलब है कि अगर किसी का बेटा मरा है और मां-बाप के आंसू सूख चुके हैं ऐसे में आपको उन्हें कुरेद कुरेद कर रुलाना है रोते हुए बाईट लाना अच्छे प्रोफेशनालिस्ट की निशानी है. अगर आप किसी थाने में हैं और पति-पत्नी का झगड़ा पुलिस निपटा ले जाती है और पत्नी पति के कुछ एक्शन विजुअल नहीं मिल पाते तो आप कत्तई प्रोफेशनल नहीं हैं. किसी शादी में थोड़े बहुत विवाद की सूचना मिलने पर अगर आप पहुंचे और बारात बिना पिटे वापिस चली गयी तो आप बेकार हैं. क्यूँ कि इन बातों की चिंता प्रोफेशनल लोग नहीं करते कि बेइज्जत हुए लोग खुदखुशी करेंगे या जीवन में उनके लड़के-लड़की की शादी नहीं हो पायेगी. ऐसी तमाम उपलब्धियां आपको बार बार हासिल करनी पड़ेंगी अगर आप प्रोफेशनल कहलाना पसंद करते हैं. फिल्मों में कैसे प्रोफेशनल कहलाते हैं मुझे बहुत सटीक अंदाजा तो नहीं मगर फिल्मों को देखकर ही अंदाजा लगता है कि वहां भी किसी स्ट्रगलर लड़की को सपने दिखाकर उसका शारीरिक शोषण का विरोध करने वाले को कत्तई प्रोफेशनल नहीं कहा जाता. अगर लड़की अपना हक मांगती है तो "be Professional" कहकर शांत कराया जाता है. बात करते हैं मार्केटिंग और फाइनेंस के क्षेत्रों की. अगर आप अपने किसी ब्रोकर को शेयर में इन्वेस्ट करने के लिए पैसे दे रहे हैं तो थोडा सावधान हो जाइये. अगर आपका ब्रोकर या एजेंट प्रोफेशनल हुआ तो आपके पैसे को वो किसी शेयर में न निवेश करके आपका इंश्योरेंस कर देगा. मात्र अपना टारगेट पूरा करने के लिए. और ऐसा करने की सलाह उसका बॉस देता है, Be Professional कहते हुए. इस पंच लाइन का प्रयोग करने वाले ज्यादातर लोग एक और पंच लाइन बार बार प्रयोग में लाते हैं. "ufff your bloddy principles". आप सोच लीजिये अगर आप प्रोफेशनल हैं तो अपने ब्लडी प्रिंसिपल्स को तो भूल ही जाइये .ऐसे तमाम क्षेत्र हैं जहाँ प्रोफेशनल का वास्तविक अर्थ है झूठ, मक्कारी, वादाखिलाफी जैसे गुणों से लैस होना. मगर चिंता मत कीजिये ये सारे गुण आपको तरक्की दिलाने में आवश्यक हैं. इन गुणों को अब बुरी नजर से नहीं देखा जाता.

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मेरी ब्लॉग यात्रा!

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

एक और सरदी का आगमन हो गया, ज्यादा पुरानी बात नही है जब पिछले सर्दियों में मैं आगरा में था। बेतरतीब सरदी और दिन से लेकर अहले रात तक कंपकपाते ठण्ड में काम के साथ गप्पें और ठण्ड सभी का आनंद। मगर इसी ठण्ड में बहुत कुछ हुआ, जिन्दगी के कुछ बहुत ही तकलीफदेह पल आए, समवेदना के ज्वार भाटा में उलझा रहा क्यूंकि जो बहुत करीब था वो अचानक से बहुत दूर हो गया। गुमसुम सा सन्नाटे की तरह पसरा बीतती रात की तरह काम से लिपट कर उस एकाकी पल को दूर करने का हरसंभव प्रयास विफल हो रहा था, मुहब्बत का जन्नत ताज का शहर आगरा मेरे उस एक एक पल को भारी कर रहा था।
आगरा से प्रकाशित होने वाला समाचारपत्र अकिंचन भारत उस समय मेरा ठिकाना हुआ करता था। जहाँ सुबह से लेकर रात के दो से तीन बजे तक में अखबारनवीसों के बीच हुआ करता था, एक नए बच्चा अखबार में कुछ बेहतरीन लोगों का साथ मानों एक परिवार का साथ हो। वरिष्ट पत्रकार गजेन्द्र यादव जी का बड़े भाई का प्यार और स्नेह तो वैभव पाण्डेय का छोटे भाई का प्यार मगर यहाँ चर्चा मैं इस बात का कर रहा हूँ की ये ही वो दिन थे जब ब्लॉग का खुमार मुझ पर भी चढा और ब्लॉग की दुनिया में मैंने भी पदार्पण किया।
यहीं पर सेन्ट्रल डेस्क पर विनीत उत्पल हुआ करते थे, समभाषी होने के कारण, अन्य कारण भी कि हमारी मित्रता भी हुई, पत्रकारों का तकनिकी में रुझान हमेशा मुझे आकर्षित करता रहा है और ये भी एक वजह थी कि विनीत के साथ हमारी गाहे बगाहे बात चीत होती रही। जहाँ मैंने विनीत को ब्लॉग पर लिखते पढ़ते पाया, एक हिन्दी भाषी और हिन्दी प्रेमी का आकर्षित होना निश्चित था सो हुआ भी, और कम्पूटर से तकनिकृत होने के बावजूद ब्लॉग की दुनिया से अनजान मैं ने ब्लॉग में कदम रखा, धन्यवाद विनीत । मुझे कोई हिचक नही शर्म नही की विनीत उत्पल मेरे ब्लॉग गुरु हैं। ब्लॉग बनाने से लेकर ब्लॉग का संचालन (अग्रगेटर) करने वालों पर पंजीकरण तक, या फ़िर विभिन्न ब्लोगों पर भ्रमण तक सब विनीत की ही देन है।
विनीत के बारे में बतात चलूँ कि जब मैं रायपुर के भाष्कर में था तो वहां के वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत शर्मा ने एक बार एक झा जी पत्रकार से मेरी बात करायी जो दिल्ली में थे और प्रशांत जी के साथ काम कर चुके थे, और अकिंचन भारत में आके पता चला कि वो दूर का भाष होने वाला और कोई नही विनीत ही हैं, तभी कहते हैं कि दुनिया गोल है, कोई भी कहीं भी मिल सकता है।
भड़ास का रास्ता भी विनीत का ही दिखाया हुआ है। न्योता पाओ भडासी बनो अद्भुत था वो यशवंत जी का स्लोगन, बिना आकर्षित हुए आप रह ही नही सकते थे सो मैं भी हुआ और बन बैठा भडासी।
आरंभिक दिनों में मैं बस चिट्ठाजगत या ब्लोग्वानी, और नारद सरीखे अग्रगेटर पर ही घुमा करता था, लिखने का वक्त नही सो गाहे बगाहे बस नजर मार लिया करता था, भडास पर आने के बाद भी मजे से पढ़ना और बस पढ़ना इससे ज्यादा नही कर पा रहा था। आगरा से वापिस भी आ चुका था और लिखने की तीव्र इच्छा हिलोरें भी मार थी सो बस कैसे-कैसे के उहा पोह में पड़ा हुआ था की यशवंत सिंह भड़ास वाले मेरे दुसरे गुरु बने जब उन्होंने बताया की कैसे मैं पोस्ट लिख सकता हूँ, (मेरा मतलब भड़ास पर से है), गुरुदेव प्रणाम प्रणाम।
ब्लॉग पर पोस्ट करना तो सीख गया था मगर समयाभाव की बस सिर्फ़ टिपिया कर निकल लेता था, और महीनों सिर्फ़ पढने और टिपियाने का सिलसिला चला, इस बीच मैं रायपुर, नागपुर, दिल्ली होते हुए मायानगरी मुंबई पहुँच गया था। टीका टिपण्णी से लगता था की डॉक्टर रुपेश आजिज आ गए हैं जब मेरे पीछे ही पड़ गए की बहुत हो गया टिपियाना अब जल्दी से पोस्ट डाल दो, और सच्चे अर्थों में कहूं तो पोस्ट लिखने और निरंतर लिखने की प्रेरणा बस डॉक्टर रुपेश का किया धारा है, डॉक्टर साहब को प्रणाम और प्रणाम अपने तीनो गुरुओं को जिनके कारण थोड़ा बहुत लिख कर अपने भाव व्यक्त कर पाता हूँ।
यात्रा जारी है और संग ही जारी है मेरे गुरुओं के आशीष जिस से मैं अपने पथ पर अग्रसर हूँ। विचारों का कारवां शायद इसे ही तो कहते हैं।
साल के बदलाव ने बदलते पथ पर बहुत कुछ बदला है और आगे भी बदलेगा।

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हमें न्याय व्यवस्था में पुरी आस्था है।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

गोवा के मंत्रीपुत्र पर लगे विदेशी किशोरी पर बलात्कार का आरोप ख़तम हो गया, पीडिता की माँ ने अपने आरोप ही वापस ले लिए और मंत्री महोदय सीना तान कर भारतीय न्याय व्यवस्था पर विश्वास होने की बात कर चलते बने।

शर्मसार हुआ हमारा देश, शर्मसार हुई हमारी सभ्यता, और शर्मसार हुआ हमारा न्याय का मन्दिर।

जब जब न्याय व्यवस्था पर विश्वास की बात आती है तो तमाम आपराधिक छवि वाले नेता ही विश्वास व्यक्त करते हैं, जिन्होंने भारतीय संविधान की धज्जियाँ उडाई हो, चाहे चारा घोटाला हो या फ़िर बंगारू का पैसों से भाडा महापेटी, जार्ज का काफिन हो या फ़िर बोफोर्स का धमाका। हजारों की तादाद में ऐसे मुक़दमे जिसमें राजनेता से लेकर अमीरजादे तक कानून को अपनी रखैल और न्यायालय को अपना कोठा समझते रहे, सारे नियम कानून तोडे और दुहाई सिर्फ़ एक हमें न्याय व्यवस्था पर पुरी आस्था है क्यूंकि ये वो आस्था है जो आमलोगों को नही। अनगिनत दर्ज मुक़दमे और उसमें फंसे आम जन मरने के बाद भी उनके वारिस कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं क्यौंकी उन्हें न्याय व्यवस्था में आस्था है।

लोकतंत्र का सबसे मजबूत पाया जिस तरह से भ्रष्टाचार के दल दल में धंसे राजनीति और पैसों नुमायिन्दों की दलाल बनी बैठी है तब तक आप जन के लिए सिर्ब एक नारा है......
हमें न्याय व्यवस्था में पुरी आस्था है।

जय जय भड़ास

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क्या मेरी पहेली सच में इतनी भारी थी?


एक तस्वीर के साथ प्रश्न किया था, तो क्या गुनाह कर लिया, इतने सारे पत्रकार, धाँसू धाँसू पत्रकार, पढने वालों की ये जमात बड़े से लेकर छोटे तक की जमात, मगर किसी ने मेरे प्रश्न का उत्तर नही दिया, मेरे पहेली को न बुझा।

ये पहेली नही थी मित्रों बल्की हमारे लोकतंत्र का आइना था, आपने उत्तर ना बता कर अपनी तस्वीर आईने में देखी है, और नि:संदेह अपने तस्वीर से रूबरू हो गए होंगे।

बहरहाल ये अनुत्तरित प्रश्न एक बार फ़िर से आपके सामने है, कुछ टिप्स का साथ.......

शायद इस बार आप एक बार फ़िर से उत्तर देने का प्रयास करें और सफल भी हों?

ज्यादा नही सिर्फ़ इतना की इन्होने सुप्रीम कोर्ट में रिट दाखिल किया, और कोर्ट ने, सुप्रीम कोर्ट ने उस रिट पर याचिकाकर्ता द्वारा वापस लेने की बात कह रिट खारिज कर दी, जबकी याचिकाकर्ता को कोर्ट में प्रवेश तक नही करने दिया गया।

क्या ये अपराध नही है? और क्या इस अपराध में कोर्ट बराबर की शरीक नही है?
क्यूंकिजिस न्यायधीश ने इस रिट को खारिज किया बाकायदा सरकार द्बारा पुरस्कार से नवाजे गए। यदि पता हो तो उस पुरस्कार का नाम भी बता दें।

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लैंगिक विकलांगों(हिजड़ॊं) से सीधे सवाल करिये

सोमवार, 10 नवंबर 2008

भूमिका ने मुखौटाधारी ब्लागरॊं की छ्द्म सहानुभूति पर जो अपने अंदाज में धिक्कारना शुरू ही करा था कि टिप्पणीकार ही अनाम, बेनाम और गुमनाम होने लगे। यदि आप इतना साहस जुटा पाएं कि हम लैंगिक विकलांगों के बारे में (जिन्हें आप शायद हिजड़ा कहना अधिक पसंद करते हैं) कुछ जानना है तो शालीन भाषा में मुझसे सवाल करें लेकिन पूरे परिचय के साथ जिसमें आपका नाम, फोन नम्बर, पता, ब्लाग का यू आर एल आदि बताएं जिससे कि पता चले कि आप वाकई गम्भीरता से कुछ ऐसा जानना चाहते हैं जो अब तक आपको पता नहीं है तो मैं आपके हर सवाल का इस चिट्ठे पर उत्तर दूंगी ये एक हिजड़े का वादा है आप मर्द और औरतों से। साथ ही एक छोटा सा विचार दे रही हऊं कि जरा बिना लिंग या योनि की दुनिया में अपनी जगह की कल्पना करिये। यदि शरीर रचना संबंधी कोई सवाल होगा तो उसका उत्तर आपको हमारे मार्गदर्शक भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव सहर्ष देंगे। आपके सवालों का मुझे इंतजार रहेगा, आप अपने सवाल मुझे मेरे ई-पते पर(manisha.hijda@gmail.com) पर भेज दीजिये।

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तकनीक के जानकारों जरा देखिये इस मामले को..........

रविवार, 9 नवंबर 2008

जरा तकनीक के जानकार बताएं कि क्या यह संभव है?
किस्सा यूं है कि rediffmail पर एक खाता है मान लीजिये कि ABC_XYZ@rediffmail.com और जब लैपटाप को चालू करा जाता है तो नीचे की ट्रे में जैसे याहू मैसेंजर कुलबुलाता रहता है वैसे ही ये भी रहता है(सभी मैसेंजर्स में होता है); एक नई विन्डो खुल जाती है कि आपको आफलाइन अमुक अमुक ने ये और ये और ये संदेश भेजे हैं जैसे कि kalloo@rediffmail.com :- hi, kyaa kar rahe ho?..............matalloo@rediffmail.com :- saale milegaa to pitega... और ऐसे ही कई संदेश बाकायदा दिनांक और समय के साथ उस विन्डो में दिखने लगते हैं क्या यह संभव है कि मैंने जिससे कभी भी किसी तरह का संपर्क न करा हो या उसे कभी अपनी तरफ से ई-मेल न भेजा हो तब भी क्या कोई संदेश मुझे मिल सकता है? अगर तकनीक के जानकार इस विषय पर प्रकाश डालें तो मेहरबानी होगी क्योंकि मेरे साथ ऐसा एक मामला सामने आया है कि ऐसा हुआ है और जिसके साथ ऐसा हुआ उसने कहा है कि उसने कभी भी उस आई डी से कोई संपर्क नहीं करा जिसका आफ़लाइन संदेश बाकी सारे संदेशों से साथ विन्डो में दर्शाया जा रहा है। मामला अत्यंत गम्भीर है अवश्य विचार करें व मार्गदर्शन करें।


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एक पहेली, सब पर भारी

मंगलवार, 4 नवंबर 2008


जरा गौर से इस तस्वीर को देखिये, और कोशिश कीजिये की ये शख्सियत कौन हो सकता है, ये एक प्रश्न है, एक पहेली तमाम बुद्धिजीवी के लिए, तमाम अल्पजीवी के लिए, तमाम वरिष्ठ और कनिष्ठ पत्रकारों के लिए, मठ के मठाधीशों के लिए उनके लिए भी जो अपने आपको समाज का पैरोकार मानते हैं और दंभ भरने से नही थकते।
उत्तर आपको मिलेगा मगर पहले आपके उत्तर की प्रतीक्षा है, और आप लोगों के उत्तर से ही उत्तर भी सम्भव है। सो बस सिर्फ़ पहचान बता दें।
ये एक ऐसी पहेली है जो पत्रकारों के चेहरे से पत्रकारिता का नकाब हटा सकती है, मठाधीशों की मठाधीशी का पोल खोल सकती है, और संग ही तमाम स्वम्भू बुद्धीजीवियत को बेनकाब करने में सक्षम है।

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एक मेल राज ठाकरे के पक्ष में.

मेरे एक मित्र से अभी अभी एक मेल मिला, जस का तस् आपके सामने पेश है। माफ़ी की इसे हिन्दी में प्रस्तुत नही कर सका, चुकी मेल था सो बस काटा और चिपका दिया।
Support for Raj Thackeray

This is a wonderful mail circulating in favour of Raj Thackerey, read thru.
We all should support Raj Thackeray and take his initiative ahead by doing more...
1। We should teach our kids that if he is second in class, don't study harder॥ just beat up the student coming first and throw him out of the school
2. Parliament should have only Delhiites as it is located in Delhi
3. Prime-minister, president and all other leaders should only be from Delhi
4.No Hindi movie should be made in Bombay . Only Marathi.
5. At every state border, buses, trains, flights should be stopped and staff changed to local men 6. All Maharashtrians working abroad or in other states should be sent back as they are SNATCHING employment from Locals
7. Lord Shiva, Ganesha and Parvati should not be worshiped in our state as they belong to north ( Himalayas )
8. Visits to Taj Mahal should be restricted to people from UP only
9.Relief for farmers in Maharashtra should not come from centre because that is the money collected as Tax from whole of India , so why should it be given to someone in Maharashtra ?
10. Let's support kashmiri Militants because they are right to killing and injuring innocent people for benefit of there state and community......
11. Let's throw all MNCs out of Maharashtra , why should they earn from us? We will open our own Maharashtra Microsoft, MH Pepsi and MH Marutis of the world .
12. Let's stop using cellphones, emails, TV, foreign Movies and dramas. James Bond should speak Marathi
13. We should be ready to die hungry or buy food at 10 times higher price but should not accept imports from other states
14. We should not allow any industry to be setup in Maharashtra because all machinery comes from outside
15.We should STOP using local trains... Trains are not manufactured by Marathi manoos and Railway Minister is a Bihari
16.Ensure that all our children are born, grow, live and die without ever stepping out of Maharashtra , then they will become true Marathi
JAI MAHARASHTRA!
जय महाराष्ट्र

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छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया.

सोमवार, 3 नवंबर 2008

जरा एक नजर राजू चिकन चिल्ली के ठेले के पास, ये तस्वीर ही हालाते बयान करती है, देश का सबसे ज्यादा नक्सली प्रभावित प्रान्त चात्तिश्गढ़ के पुलिस की चौकसी का ये नजारा सिर्फ़ राजू चिकेन चिल्ली की दूकान पर ही नही अपितु सर्वत्र मिल जायेगी।पीछे बोर्ड पर लिखे चेतावनी और नियम्मों की धज्जियाँ उडाते ये पुलिस जहाँ फ्री का चिकेन उडा रहे हैं वहीँ वायरलेस पे सम्बंधित पधाधिकारी को अपनी मुतैदी की रिपोर्ट भी।

जरा नजर इन मोहतरमा पर, ये छत्तीसगढ़ की ट्राफिक की सिपहसालार हैं, छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े शहर के व्यस्ततम चौराहे पर मोहतरमा घंटों फोन पर लगी रहीं, चाहे चारो और की ट्राफिक जाम रहे या खुली, आप देख सकते हैं की सामने कोई सा भी सड़क खुला नही है, मैडम बातों में व्यस्त जो हैं और लोग जानते हैं की घंटों आप किस से बातों में व्यस्त रहते हैं।
ये दो नजारे मेरे कैमरे में कैद हो गए, छत्तीसगढ़ की आर्थिक राजधानी विलासपुर का नजारा है ये, सक्रियता और मुस्तैदी का अद्भुत संयोग।

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मेरा स्वागत करिये

रविवार, 2 नवंबर 2008

मामू लोग अभी तक आप लोग को भड़ास निकालते देखती थी और मन ही मन किरकिर करती थी लेकिन अब मैं भी भड़ासिन बन गयी हूं तो सबको इस बात का ध्यान रखना होगा कि जरा कम ही भंकस करें क्योंकि ये काम अपुन लोग का है। समझे क्या?

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पुरस्कारों का ज़खीरा, सोयी मीडिया सोया सरकार.


क्या कभी इतने शील्ड एक साथ देखे हैं?

मैडल ही मैडल, पदक ही पदक, शील्ड ही शील्डये नजारा और कहीं नही विलासपुर में सर्दियों में आयोजित होने वाली ग्रामीण सांस्कृतिक महोत्सव का हैअपने आप में अनूठा ये ग्रामीण सांस्कृतिक पर्व पुरे देश के लिए प्रेरणा हैमगर नही है ये प्रेरणा क्यौंकी दुनिया से अनजान जो है, जब मैं बिलासपुर पहुँचा तो इस पर्व में सम्मिलित होने का मौका मिला और देख कर हैरान रह गया की हमारी सांस्कृतिक धनाड्यता और नजरों में नही, ना ही मीडिया की नजर और ना ही स्थानीय सरकार कीसैकडो गावं यहाँ सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा में भाग लेते हैं, और प्रदर्शन के आधार पर पुरस्कार के हक़दार होते हैं, संग ही मेला के बहाने तमाम गाव आपस में मिलते हैं और अपनी संस्कृति के साथ समस्याओं पर चर्चा कर उसका निदान भी निकालते हैं
क्या इस संस्कृति को पुरे देश में प्रसारित नही होना चाहिए ? मगर जब स्थानीय सरकार ही उदासीन हो, मीडिया के मुलाजिम लाला जी के लिए पत्रकारिता कर रहे हों वहां हमारी सभ्यता की विशेषताओं को किसने देखा है, स्थानीय सरकार की अपनी ढोल है जो उसकी पोल भी खोलती है और मीडिया का राज ठाकरे से लेकर क्रिकेटर पर चर्चा के अतिरिक्त समय कहाँ जो हमारे जड़ में जाए
ब्लॉग समुगाय के लिए सिर्फ़ जानकारी भर क्यूंकि ब्लोगिंग भी पन्ने पर उड़लती चंद बूंद स्याही से ज्यादा जो नही दीख रही

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डाक्टर बना लाला जी, अस्पताल बना दूकान.


लखनऊ का संजय गाँधी चिकित्सालय, एक बीस वर्षीया युवती को ह्रदय रोग विभाग में भरती करना था, हस्पताल कहता है की पहले पैसे भरो तब भारती करेंगेसरकारी मदद से उपलब्धता के आधार पर युवती को हस्पताल में भारती किया जाता है और उसके ह्रदय का इलाज भीअब हस्पताल प्रशाशन उसे अस्पताल से छुट्टी नही दे रहा है क्यौंकी हस्पताल के अनुसार उसने बिल नही भरा है, और बिना बिल चुकाए अगर वोह हस्पताल से जाती है तो हम उसके ख़िलाफ़ मुकदमा करेंगेये कहानी नही हकीकत है उत्तर प्रदेश की राजधानी के सबसे बड़े चिकित्सालय की

सलमा के ठीक हुए महीनों बीत चुके हैं, इस दौरान उसके भाई और अब्बा की भी मौत हो चुकी है मगर डॉक्टरों ने उसे अन्तिम संस्कार तक मेंजाने की इजाजत नही दी क्यौंकी उसने डॉक्टरों की फीस और अस्पताल का बिल नही भरा है ऐसा अस्पताल प्रशाशन का कहना है, सलमा की माने तो भरती होने से पहले अस्पताल ने सत्तर हजार रूपये की मांग की थी, पचास हजार रूपये मुख्यमन्त्री रहत कोष से और बीस हजार ख़ुद के इन्तजाम से सलमा के परिवार वालों ने हस्पताल में जमा कराया था जिसके बाद ही सलमा का इलाज किया जा सका.

परिवार में मौत और गरीबी का आलम ऊपर से ठीक हो चुकी सलमा के ऊपर सात महीने का हस्पताल का बिल जो की सिर्फ़ इसलिए क्यौंकी सलमा को अस्पताल प्रशाशन ने छूट्टी नही दी। आज सलमा अस्पताल के थोपे गए बिल को देने में असमर्थ है मगर डॉक्टरों की माने तो उसने कभी सलमा को जबरदस्ती नही रोका है, हाँ बिना बिल चुकाए जाने का मतलब है अस्पताल का सलमा के ऊपर कानुनी कार्रवाई।

भौतिकवादी होते युग में जहाँ आज भी डोक्टर को इश्वर का दर्जा प्राप्त है वहां संजय गांधी चिकित्सालय के डॉक्टरों का ये वर्ताव निसंदेह समाज के लिए चिंतनीय है, प्रश्न की बिभेद की राजनीति से मरने वाले हमारे भाई या भी पैसे की अंधी दौड़ में डॉक्टरों का गरीबों का शोषण, दोनों ही बड़ाबड़ी के गुनाहगार नही? राज ठाकरे हो या संजय गांधी अस्पताल के ये चिकित्षक दोनों में फर्क क्या है?
शायद आप जवाब दें ?
मुझे नही बल्की सलमा को और उस जैसी हजारों गरीबी की मार से दबे लोगों को जो मानवता के पेशेवर होने का शिकार हो रहीं हैं.

साभार:- दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली।

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हिमवंत जी की टिप्पणी .......

शनिवार, 1 नवंबर 2008

महाराष्ट्र के डा. हेडगेवार देश की एकात्मकता के लिए काम करने वाले युगपुरुष थे। लेकिन उनके बारे मे शायद हीं कोई भी टीभी चैनल वाला सकरात्मक चीजे दिखाता है। आज दो हजार लोग सडक पर उतर कर भारतीयता के पक्ष और क्षेत्रवाद के विरोध मे नारे लगाए तो शायद हीं कोई भी टीभी चैनल वाला अपने प्राइम टाईम मे उसको प्रदर्शीत करेगा। लेकिन अगर कोई राज ठाकरे क्षेत्रवाद को बढावा देने वाली कोई भडकाउ बात करेगा तो टीभी चैनल वाले बार बार उसे दिखाएगे। फिर कोई नितीश, लालु या पासवान कुछ भडकाउ प्रतिकृया देगे तो फिर उसे भी उसी प्रकार बार बार दिखाया जाएगा। आज देश की मिडीया मे विदेशी शक्तियो का बहुत बडा निवेश है। यह निवेश प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ से भी ज्यादा साम्राज्यवादी शक्तियो के हित पोषण के लिए किया गया है। विश्व मे भारत ही एक ऐसा विशाल भुखण्ड है जिसमे राष्ट्र बनने की सभी गुण विद्यमान हैं। विश्व शक्तियो के सामने भारत बडी चुनौती है। इस कारण शक्ति सम्पन्न राष्ट्र भारत मे क्षेत्रियता और भाषावाद को बढावा देना चाहते है। वह यह भी चाहते है की यहा हिन्दु और मुसल्मान आपस मे लडे। यही कारण है की मिडीया छद्म रुप से क्षेत्रियता और भाषावाद को बढावा देने वाली घटनाओ को ज्यादा से ज्यादा दिखाती है। राज ठाकरे को महत्व न देना ही उसकी प्रवृती को नष्ट करने का सबसे बढिया तरिका है। अतः राज ठाकरे और उसकी बातो पर प्रतिकृया देने वालो की कम से कम चर्चा की जानी चाहिए। एक बात और, बिहार मे कानुन व्यवस्था तथा विकास के काम बिल्कुल ठप्प हो गए है। मतदान और राजनिती का आधार विकास न हो कर जातिवाद रह गया है। रोजगारी का सृजन ठप्प पड चुका है। लोगो ने शासन के लिए गलत लोगो का चुनाव किया था तो यह सब भुगतना हीं था। आज बिहारी जनता को रोजगार के लिए महाराष्ट्र-पंजाब और असम जाना पड रहा है तो इसके लिए सबसे बडा दोषी कौन है। मै इस स्थिती के लिए राज ठाकरे को कतई दोषी नही मानता। इस स्थिती के लिए बिहार की जनता और यहा के नेता ही सबसे बडे दोषी है। क्षेत्रिय विकास असंतुलन की वजह से इतनी बडी जंनसंख्या का दुसरे राज्य मे बस जाना की वहां के लोग खुद को अल्पसंख्यक महसुस करने लगे, इस बात की कोई राज ठाकरे चिता करता है तो राष्ट्रियता के नाम पर उसकी बात को खारीज नही किया जाना चाहिए। इस बात पर बहस होनी चाहिए की बिहार विकास के दौड मे क्यो पीछे छुट गया है और इसका दोष दुसरे के सिर मढने से काम नही चलेगा। बिहार की जनता और बिहार के नेताओ को संकल्प लेना चाहिए की वे दुसरे राज्यो मे बोझ नही बनेगे बल्कि खुद बिहार को विकास के मार्ग पर आगे बढाएंगे।

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राज का बदलाव या क्षद्मता?

कल शाम केंद्रीय कमिटी की बैठक महाराष्ट्रा मामले पर थी, महाराष्ट्रा की राजनीति और स्थानीय सरकार एक बार फ़िर केंद्रीय सरकार के गले की हड्डी साबित हुई। जहाँ इस बैठक से महाराष्ट्र के मंत्रीगण नदारद थे वहीँ प्रेस से मिलने से परहेज करने वाले राज ठाकरे ने आनन् फानन में प्रेस कांफ्रेंस बुलाया और पहली बार अपने लाव लश्कर के साथ प्रेस के सामने उपस्थित भी। मगर ये संयोग नही था क्यौंकी जिस तरह से केंद्रीय मंत्रिपरिषद की बैठक में महाराष्ट्रा के मंत्री नदारद थे और उसके समाप्त होते ही राज की प्रेस से मिलिए का कार्यक्रम था नि:संदेह मौन स्वीकृती मराठी मंत्रियों की राज के प्रति थी। केंद्रीय कांग्रेसी सरकार के गले की हड्डी महारष्ट्र की देशमुख सरकार है यी साबित हो गयी, स्थानीय राजनीति की बलिवेदी पर कांग्रेस असफल और नाकाबिल देशमुख को नही चढाना चाहती है मगर संभावित चुनाव के कारण वैमनष्यता की राजनीति में कांग्रेस का मौन सहयोग प्रर्दशित हो गया। जरा राज के प्रेस सम्मलेन पर नजर डालिए.........

राज को छठ पूजा पूजा नही नौटंकी लगता है। इसके बावजूद आज वो पूजा के ख़िलाफ़ नही होने का ऐलान करते हैं और घोषणा भी की लोग यहाँ छठ मन सकते हैं, यानी की हमें क्या करना है क्या नही की स्वीकृति राज ठाकरे नमक जीव देगा।

मराठियों पर हमले की बात तो महारष्ट्र की स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस भी साबित नही कर सकता मगर राज मराठी पर हमले की दुहाई देते हैं। राज कहते हैं की मराठी का वो अपमान स्वीकार नही करेंगे, अप्रत्यक्षत: एक बार फ़िर सी धमकी भी, अरे भैये जहाँ राज के लोग तमाम उत्तर भारतियों की ही पिटाई कर रहे हों वहां मराठी का अपमान कौन कर रहा है?

राज ने राहुल राज की मौत को जायज ठहराया, ट्रेन में धर्मदेव को पीट पीट कर मौत देने वाले को राज की मने तो रक्षक की संगा दी। मगर उन मनसे आतंकियों के साथ ख़ुद के बारे में नही कहा की वो देश का सबसे बड़ा आतंकी है जिसने देश की अखण्डता पर ही सवाल उठाया है।

अंत में चलते चलते फ़िर से चेतावनी का ढोल बजाते गए।क्या महाराष्ट्र में देशमुख नामक जीव सिर्फ़ नाम का मुख्यमन्त्री है, अगर उससे प्रान्त की व्यवस्था नही सम्हाल रही तो क्योँ ना केन्द्र सरकार वहां राष्ट्रपति शासन लगा दे, मगर मनमोहन के गले की हड्डी बना महाराष्ट्र का कांग्रेसी सरकारजिसे ना निगलते बने ना उगलते, खामियाजा सिर्फ़ आम जन को और ये खामियाजा आम जन के मार्फ़त से होते हुए मनमोहन कैसे पहुँच जायेगा ये हमारे प्रधानमंत्री को पता नही। राज का जहर भले ही हमारे देश के लिए किसी भी आतंकी सी ज्यादा हो मदर हमारे सरकार, विपक्ष और इनके नुमाइंदे अपने धंधे की देहरी पर सिर्फ़ भाईचारा पर राजनीति करेंगे, आतंकी पर नही।

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